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________________ | 238 जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 करता हूँ यानी मेरे क्रोध भाव का शमन करता हूँ, दूसरों के दोष की स्मृति व कल्पना को ही निःशेष करता हूँ। (खामेमि सव्वे जीवा)। आगे वह चिन्तन करता है सभी जीव मुझे क्षमा करें। प्रथम भावार्थ तो यही कि दूसरों में दोष देखने वाला, दूसरों के अपवाद, अवर्णवाद को याद न रखने वाला ही विनम्र भाव से क्षमायाचना करने का अधिकारी है। क्रोध भाव छूटा तो व्यक्ति अपने को सामान्य समझेगा, अपने में ही दोष देखेगा तो मान, अहंकार, अभिमान स्वतः छूटेगा और वह विनम्र बन छोटे से छोटे व्यक्ति के समाने झुक कर अनुनय करेगाआप मुझे क्षमा करें, मेरे द्वारा हुए अपराधों के लिए मुझे क्षमा प्रदान करें। (सव्वे जीवा खमन्तु मे) क्रोध छूटा, अभिमान विगलित हुआ, व्यक्ति अपने को दोषी व दूसरों को गुणी मानने की ओर बढ़ा, तो भला माया को स्थान कहाँ। परगुणदर्शन, परगुणवर्णन व परगुण चिन्तन आते ही जीवमात्र के साथ बंधुत्वभाव, मैत्रीभाव विकसित हुआ। जीव सहज ही बोल पड़ता है- सभी जीव मेरे मित्र हैं (मित्ती मे सव्वभूएसु)। अधिकांश व्यक्तियों की दृष्टि स्वार्थपूर्ति की ओर संलग्न रहती है। उस स्वार्थपूर्ति में जो वस्तु/व्यक्ति बाधक बनता है, साधक उसके साथ वैर कर लेता है, लेकिन जहाँ मैत्रीभाव विकसित हो जाता है तो ऐसे मैत्रीभाव से सिक्त साधक संतोष को भीतर में जगाता हुआ अर्थात् लोभ का परिहार करता हुआ किसी के प्रति वैर नहीं पालता और उसका अन्तर्मन बोल उठता है- वरं मज्झं न केणई। जरा जैन इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों की ओर दृष्टिपात करें। श्रावक श्रेष्ठ सिन्धु सौवीर नरेश उदयन पौषध में प्रतिक्रमण के पश्चात् चौरासी लक्ष जीवयोनि के साथ क्षमायाचना करते हुए क्या चिन्तन करता हैमैंने चौरासी लक्ष जीवयोनि से क्षमायाचना की है। बंदीगृह में बंद सम्राट् चन्द्रप्रद्योत भी तो चौरासी लक्ष जीवयोनि में शामिल है. उनसे क्षमायाचना नहीं की तो मेरी क्षमायाचना, मेरा प्रतिक्रमण, मेरी पौषध-साधना अधूरी है। पहुँचे चन्द्रप्रद्योत के सामने, क्षमायाचना की। बंदीगृह में पड़े चन्द्रप्रद्योत ने श्रावक शिरोमणि को ललकारा। यह कैसी क्षमायाचना, यह कैसा ढोंग। अगर क्षमायाचना ही करनी है तो पहले मुझे मुक्त करो, मुझे स्वर्णगुलिका व अनलगिरी (हाथी) व मेरा राज्य लौटाओ। कैसी परीक्षा की घड़ी थी, पर श्रमण भगवान महावीर का सच्चा श्रावक वहाँ भी उत्तीर्ण हुआ व क्षमा का सच्चा आदर्श प्रस्तुत कर चन्द्रप्रद्योत का बन्दीगृह से मुक्त करते हुए इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अपनी छाप अंकित कर गया। यह कषाय प्रतिक्रमण का उत्कृष्ट अनुकरणीय प्रेरक उदाहरण है जिसे हृदयंगम कर, अनुसरण कर आप भी सच्चा प्रतिक्रमण कर सकते प्रतिक्रमण से आत्म-शुद्धि होती है। आप जब भी प्रतिक्रमण करें और 'मिच्छा मि दुक्कडं' दें तो आत्मा की आवाज के साथ दें। यही कषाय प्रतिक्रमण है। आत्मा की शुद्धि के लिये समत्व का गुण बढ़ाएँ और कषायों को दूर करें, ऐसा करने पर निश्चय ही जीवन सार्थक हो सकेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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