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कषाय और प्रतिक्रमण
साध्वी डॉ. अमितप्रभा
(महासती श्री उमरावकुंवर जी म.सा. 'अर्चना' की शिष्या)
अनादिकाल से आत्मा व कर्म का संबंध क्षीर- नीरवत् बना हुआ है। इसका मूल कारण कषाय है। 'संसारस्स उ मूलं कम्मं, तस्स वि हुति य कसाया" अर्थात् संसार का मूल है कर्म और कर्म का मूल है - कषाय । भगवती सूत्र में कषाय और योग के निमित्त से कर्म का बंध बतलाया है। आत्मा जिसके द्वारा अपवित्र, भारी या मलिन हो रही है, उसका कारण कषाय है।
कषाय का शाब्दिक अर्थ है- कष+आय। कष- - संसार, आयय-वृद्धि अर्थात् संसार-भ्रमण की वृद्धि जिससे हो वह कषाय । जीव का चार गति चौरासी लाख जीवयोनि में परिभ्रमण कषाय से होता है। आत्मा के परिणामों को जो कलुषित करता है, वह कषाय है। इसके द्वारा आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप नष्ट होता है, यह आत्म-धन को लूटने वाला तस्कर है । सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध के षष्ट अध्ययन में गणधर सुधर्मा स्वामी ने कषाय को अध्यात्म दोष कहा है।
जैन दर्शन ने जीव के संसार - परिभ्रमण एवं सुख-दुःख की प्राप्ति में कर्म को मूल आधार माना है। कर्म के मूल भेद आठ बतलाये हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय। इन अष्ट कर्मों में मुख्य मोहनीय कर्म है । इस मोहनीय कर्म के उदय से कषाय उत्पन्न होता है और इसके कारण आत्मा वीतराग पद को प्राप्त नहीं कर पाता। कषाय के क्षीण होने पर ही वीतराग- पद की प्राप्ति होती है। मोहनीय कर्म के मूल भेद दो हैं- दर्शन - मोहनीय और चारित्र - मोहनीय । उत्तर भेद अट्ठाईस हैं मोहनीय कर्म
दर्शन मोहनीय
मिथ्यात्व - मोहनीय सम्यक्त्व - मोहनीय मिश्र - मोहनीय
अनंतानुबंध क्रोध, मान, माया, लोभ
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15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी,
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अप्रत्याख्यान
क्रोध, मान, माया, लोभ
कषाय- मोहनीय
चारित्र मोहनीय
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प्रत्याख्यान
संज्वलन
क्रोध, मान, माया, लोभ क्रोध, मान, माया, लोभ
हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसंकवेद
नोकषाय- मोहनीय
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