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________________ 1237 | 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी काम छोड़कर पहले आग बुझाता है। संत भी सब काम छोड़कर क्षमायाचना करे। यदि संत पन्द्रह दिन का उल्लंघन करता है तो वह भगवान की दृष्टि में माधुत्व के योग्य नहीं। किसी के चार महीने निकल जायें और उसके द्वेष की गाँठ भीतर में बनी रहे तो उसका श्रावकपना नहीं रहता। साल भर बीत जाने पर भी द्वेष की गाँठ नहीं खोले, खमतखामणा करके शुद्धीकरण नहीं करे तो उसकी समकित का ठिकाना नहीं रहता अर्थात् वह मिथ्यात्व में आ जाता है। वह फिर चाहे जितनी सामायिक करे उसकी सामायिक सच्ची सामायिक नहीं कहलाती। सामायिक नहीं सो नहीं, तपस्या भी तपस्या नहीं रहती। व्रत, व्रत नहीं रहता। तत्त्वार्थ सूत्र में कहा“निःशल्यो व्रती' मिथ्यात्व भी एक शल्य है और इस मिथ्यात्व शल्य के रहते किसी भी प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान फिर भले ही वह व्रत, नियम, तपश्चर्या आदि हो, लेकिन कर्म-निर्जरा के खाते में नहीं जाता। अतः किसी प्रकार का शल्य नहीं रखें। भले ही अगला द्वेष रखता हो, मगर आप अपने भीतर क्षमाभावना, मैत्री भावना, करुणा भावना, सेवा और अनुकम्पा को स्थान दें यह आपका सच्चा कषाय प्रतिक्रमण कहलायेगा। तपस्वी बहन के दीर्घतपःपूर्ति के प्रसंग पर जयपुर में उस आयोजन में आचार्य भगवन्त (हस्तीमल जी म.सा.) ने स्पष्ट और खरी टिप्पणी की राजनेताओं पर। यह बात उपस्थित राजनेता को जरा अखर गई और उन्होंने भी अपने भाषण के दौरान भाषा का विवेक नहीं रखा, परिणामस्वरूप श्रद्धालु भक्त अवज्ञा को देख आवेश में थे, पर गुरुदेव शान्त-सौम्य स्वभाव में स्थित रहे। सायंकाल इसी प्रसंग को लेकर डागाजी ने गुरुदेव से कहा-“गुरुदेव आप लब्धिधारी महापुरुष हैं आज तो महादेव की तरह तीसरा नेत्र खोल देते।” षट्काय प्रतिपाल, मैत्री व करुणा के सागर, समत्व के आराधक उन महापुरुष का प्रत्युत्तर था- “भोलिया! क्यों ऐसा चिन्तन कर पंचेन्द्रिय वध के पाप का पाप बंध कर रहा है। कुछ करना तो दूर मेरे मन में ऐसी बात भी आ जाती तो मेरी साधुता ही चली जाती।" । इसे कहते हैं- सच्चा समत्व व सच्ची साधुता । जहाँ इस प्रकार की अवज्ञा रूप प्रतिकूलता में उन्होंने अपने आत्मस्वभाव में स्थित रहते हुए कषाय को प्रवेश तक नहीं होने दिया। अर्थात् शुद्ध आत्मिक दशा का अतिक्रमण नहीं होने दिया। आपको ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। यह शरीर भी हमको प्रेरणा दे रहा है। बाहर का तापमान चाहे '०' डिग्री हो चाहे '४८' डिग्री, स्वस्थ दशा में इस शरीर का तापमान एक-सा बना रहता है। आप जानते हैं स्वस्थ शरीर की निशानी है ९८.६ डिग्री फारेनाइट तापमान। जब आपके शरीर का तापमान एक-सा रहता है तो दिल-दिमाग का तापमान क्यों नहीं एक-सा रखते। आप बात-बात में उखड़ेंगे नहीं तो आपमें समरसता रहेगी, वातावरण भी विषाक्त नहीं होगा। आप प्रतिक्रमण आवश्यक में विभिन्न व्रतों, दोषों व अतिचारों का चिन्तन करने के अनन्तर प्रभु की भाव-वन्दना करके 'खामेमि सव्वे जीवा....' का पाठ बोलते हैं। क्या इसके भावार्थ का भी हमने चिन्तन किया है- साधक कायोत्सर्ग प्रत्याख्यान से पूर्व यह पाठ बोलते हुए चिन्तन करता है- मैं सभी जीवों को क्षमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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