SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ |15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 12351 समरसता, माधुर्य, करुणा, सेवा, सौम्यता, आत्मीयपन जैसे मौलिक गुणों की वृद्धि हो। जीवन में स्व-पर का उपकार हो। स्व-जीवन के साथ सर्वत्र अपरत्व व प्रसन्नता का वातावरण निर्मित हो। जीवन में निर्दोष भाव जगे, स्वयं के लिए कर्मनिर्जरा का अनुकूल वातावरण निर्मित हो और कर्मबंध से जीव बचे। जरूरत है कषाय प्रतिक्रमण के लिए सतत विवेक एवं जागरूकता की। आपको ध्यान है मध्य के २२ तीर्थंकरों के शासनवर्ती श्रमणों के लिए उभयकाल प्रतिक्रमण करना अनिवार्य नहीं था। उन श्रमणों को जब भी दोष दृष्टिगत होता वे तत्काल प्रतिक्रमण कर लेते, अर्थात् दोषों का परिमार्जन कर लेते, क्योंकि वे प्राज्ञ एवं ऋजुभाव युक्त होते थे। उस समय के साधु सतत जागरूक रहते। हम भी कषाय प्रतिक्रमण से संबंधित जागरूकता का परिचय देने के लिए प्रति समय विवेक का नेत्र खुला रखें। उवसमेण हणे कोहं. माणं महवया जिणे। मायं चज्जवभावेण, लोहं संतोसओ जिणे ।। अर्थात् जब-जब भी कषाय का प्रसंग उपस्थित हो, उस समय इस गाथा के माध्यम से विधेयात्मक दृष्टिकोण को विकसित करें जिससे कषाय के प्रति ग्लानि का भाव जग सके और विचार व आचार में कषाय मुक्त संस्कार जग सकें। आज अहिंसा पर जितना विश्वास है, कषाय मुक्ति को लेकर कहना होगा अभी संस्कार जमे ही नहीं हैं। किसी भावुक भक्त के हाथ से कभी कोई चूहा या चिड़ी का बच्चा अचानक मर जाता है तो आदमी ग्लानि से भर जाता है। कभी-कभी तो हम संतों के पास आकर कुछ भाई कहते भी हैं- गुरुदेव! आज गलती से चूहा मर गया। इसलिए असावधानी से हुई इस जीव हिंसा के लिए आप प्रायश्चित्त फरमाओ। प्रायश्चित्त लेना अच्छी बात है। प्रायश्चित्त लेना चाहिये, पर समझने की बात है कि जीव हिंसा को लेकर आपको जितना मलाल है, हिंसा के कारण मन में जो ग्लानि पैदा हुई है तो क्या क्रोध होने पर भी इसी तरह प्रायश्चित्त लेने की भावना आती है? एक-दूसरे का एक-दूसरे के साथ टकराव हो गया। क्या उस समय मन में ग्लानि का अनुभव होता है? क्या प्रायश्चित्त लेने की इच्छा होती है? बहुत कम लोग हैं जो क्रोध, मान, माया, लोभ के उत्पन्न होने पर इस तरह विचार करते हैं। हाँ, ऐसे तो बहुत मिल जायेंगे जो ईंट का जवाब पत्थर से देने में ही अपना गौरव समझते हैं, क्रोध में किसी पर रोब जमाकर संतुष्ट होते हैं, उसी में अपनी शान समझते हैं, बदले की भावना से अवसर की फिराक में रहते हैं और मौका मिलते ही बदला लेकर उसी में जीवन की जीत समझते हैं। आज सहनशीलता घटती जा रही है। क्या अमीर क्या गरीब, क्या सत्ताधीश क्या कर्मचारी, क्या छोटा क्या बड़ा, क्या बच्चा क्या बूढ़ा, हर एक की नाक पर जैसे गुस्सा बैठा ही रहता है। किसी ने ठीक ही कहा- “ना हम बहरे हैं ना हम गहरे हैं, सच पूछो तो हम नए जमाने के चेहरे हैं। इसीलिए हमारे जीवन में अविवेक और गुस्से के पहरे हैं।" क्या बताऊँ आपको, एक बार किसी घर में गोचरी जाने का प्रसंग बना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy