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________________ 234 जिनवाणी ||15.17 नवम्बर 2006 अनेक भवों में अनेक बार प्रयास किये, लेकिन भाव शुद्धि के सूचक कषाय प्रतिक्रमण को लेकर अन्तरात्मा में जागृति नहीं रही। यही कारण है धर्म-क्रियाएँ करते हुए भी साधना की सिद्धि में मंजिल नहीं मिल रही है। स्वयं सिद्धसेन दिवाकर ने कल्याणमंदिर स्तोत्र की रचना करते हुए भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति में अपने अन्तर्मन के उद्गारों को प्रकट करते हुए कहा आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जनबान्धव! दुःखपात्रं, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या।। हे प्रभो! मेरे इस जीव ने आपके दर्शन किए, आपका प्रवचन सुना, आपकी महिमा गाई। हे भगवन्! मैंने इतना सब-कुछ किया, लेकिन मैंने आपकी वाणी को अन्तर्हदय में नहीं उतारा, इसलिए दुःख का भाजन बना हुआ हूँ। उचित ही है कि भाव के बिना क्रियाएँ सफल नहीं होती है। श्रावक विनयचन्दजी ने भी इसी बात को पुष्ट करते हुए कहा साधुपणो नहीं संग्रह्यो, श्रावक व्रत न किया अंगीकार के। आदया तो न आराटिया, तेहथी रूलियो हूँ अनन्त संसार के ।। श्री मुनिसुव्रत साहिबा..... कितनी सुन्दर बात कही है। कवि श्री विनयचन्द जी ने २०वें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत भगवान की महिमा गाते हुए कहा- “आदा तो न आराधिया'' अर्थात् व्रत और महाव्रत स्वीकार तो अनेक बार किये, मगर आराधकता नहीं जगी। आराधकता का मतलब है प्रतिपल जागरूकता। सम्यक्त्व के समय आयुष्य का बंध। कषाय की मन्दता में हमारा चिन्तन और तदनुरूप जीवन को ढालना। एक बार जीव आराधक हो जाय तो वह पन्द्रहवें भव का उल्लंघन नहीं करता। इसके विपरीत बाह्य व्यवहार में भगवान गौतम के समान कठोर क्रिया करने वाले एवं अनेक पूर्वधर भी आज निगोद में बैठे हैं। कारण क्या?. कारण है ज्ञान सीखा, क्रिया की, पालना भी की, पर कषाय भाव नहीं छूटा तो मानो बिना अंक के सारे शून्य व्यर्थ हो गए। कषाय का सरलार्थ भी है- कष+आय, जिसमें पापों का आगमन हो, वह कषाय । पापों से भारी हुई आत्मा तो निश्चय ही अधोगति की ओर ही प्रयाण करेगी। कषाय. आत्मा का स्वभाव नहीं है। कषाय में, विकारों में रहना आत्मा का स्वभाव नहीं है। आत्मा क्रोध में नहीं रह सकता! आप व्यवहार में देख सकते हैं। आप हमेशा क्रोध में रहना चाहें तो रह नहीं सकते। क्यों? तो यह आत्मा का स्वभाव नहीं है। इसका मतलब जीव जब-जब क्रोध करता है, दूसरों के प्रति द्वेष बुद्धि रखता है, बदले की भावना से ग्रस्त रहता है, दूसरों की उन्नति से ईर्ष्या में दग्ध रहता है, जरा सी प्रतिकूलता में उबल पड़ता है, तकरार कर बैठता है, दूरियाँ बढ़ा लेता है। आने-जाने का, मिलने तक का व्यवहार बंद कर देता है, विद्वेष भावना के साथ अगले की निन्दा-विकथा करने से नहीं चूकता, सदा दूसरे के दोष देखकर बुराई में लिप्त रहता है तो यह सब प्रवृत्तियाँ विभाव दशा की सूचक हैं अर्थात् शुद्ध आत्मस्वभाव का अतिक्रमण है। अतः जरूरत इस बात की है कि कषाय प्रतिक्रमण से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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