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||15,17 नवम्बर 2006||
जिनवाणी प्रयोगशाला है। आत्म-शुद्धि के लिए कषाय का प्रतिक्रमण आवश्यक है क्योंकि कषाय ही जन्म-मरण रूप संसार वृक्ष को हरा-भरा रखने वाला है, कषाय ही समस्या में वृद्धि करने वाला है। इस कषाय के कारण से ही घर, परिवार और समाज में दूरियाँ बढ़ती जाती हैं और व्यक्तिशः जीवन अशान्त बनता जाता है। यदि गहराई से सोचें तो शारीरिक रोगों का मूल कारण भी कषाय ही है। प्रसन्नता के बाग में आग लगाने वाला, समरसता की सरिता में विष घोलने वाला, धैर्य की धरती में भूकम्प लाने वाला यदि कोई है तो वह कषाय ही है। जीवन शान्त, प्रशान्त, समाधिवन्त बना रहे, इह लोक-परलोक का वातावरण सुखद बना रहे तो उसका एकमात्र उपाय कषाय प्रतिक्रमण ही है। आज बाह्य धर्म-साधना तो बहुत बढ़ती जा रही है। आप देखते हैं, अनुभव भी करते हैं कि हमारे भाई धर्म-स्थान में बहुत बड़ी संख्या में आते हैं। हम पुराने समय की वर्तमान से तुलना करें तो लगेगा कि आज धर्म-साधना के प्रति पहले से ज्यादा सजगता है। पहले इतनी तपश्चर्याएँ नहीं होती थीं, जितनी आज हो रही हैं। प्रवचन-सभा में भी आज उपस्थिति पहले की अपेक्षा अधिक रहती है। दया-संवर और पौषध की साधना में भी इजाफा हुआ है। पुस्तकों का प्रकाशन भी पहले से ज्यादा हो रहा है। धर्म-साधनाएँ पहले भी होती थीं, किन्तु आज पहले की अपेक्षा चाहे दया हो, चाहे संवर हो, बढ़ी ही हैं। पहले इतने शिविर नहीं लगते थे, जितने आज जगह-जगह पर लग रहे हैं।
हम विचार करें- एक तरफ धर्म-साधना बढ़ रही है, बढ़नी चाहिए लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी विचारणीय है। हमारी बात कषाय के प्रतिक्रमण को लेकर चल रही हैं। इतनी-इतनी तपश्चर्या, साधनाआराधना, सामायिक-स्वाध्याय, दया-संवर के चलते हुए जीवन में कितना परिवर्तन हुआ है, कितना हो रहा है? इस पर भी हमें कुछ विचार करना चाहिये। मूल्य गणना का नहीं, मूल्य गुणात्मक स्वरूप का है। संख्या कितनी है इसका उतना महत्त्व नहीं जितना साधना कितनी निर्दोष की जा रही है, उसका महत्त्व है। संख्या के बजाय जीवन में परिवर्तन का मूल्य है। आप पाँच सामायिक करें, हम सामायिक-साधना की प्रेरणा करते हैं पर पाँच सामायिक करने वाले को सोचना चाहिये कि मेरी कषायें कमजोर हुई हैं या नहीं? यदि कषायें मन्द नहीं हुई तो कहना होगा साधना का जितना लाभ मिलना चाहिये वह नहीं मिल रहा है। आज साधन को ही साध्य समझने की भूल हो रही है। आत्मलक्ष्यी धर्म क्रियाएँ गौण हो रही हैं। मात्र बाह्य क्रियाओं को ही प्रधानता देकर आदमी संतुष्ट हो जाता है कि हो गया धर्म। कभी-कभी तो बाह्य धर्म-क्रियाओं की परम्परा को लेकर इतना विवाद हो जाता है कि धर्म का मूल क्षमा, समत्वभाव ही पीछे छूट जाता है अर्थात् कषाय घटने की बजाय बढ़ जाता है, धर्म तक बदनाम हो जाता है। लोगों की धर्म के प्रति अनास्था जग जाती है। यद्यपि धर्म तो शुद्ध था, शुद्ध है और शुद्ध ही रहेगा मगर धर्मक्रिया करते हुए भी कषाय नहीं छूटता तो धर्म प्रभावशाली नहीं बन पाता। कषाय प्रतिक्रमण इस बात का सूचक है कि जो धर्मक्रियाएँ हम कर रहे हैं वे कितनी आत्मलक्ष्यी बन पाई है? कितना कषाय मंद हुआ? कितना उपशांत भाव जगा? कितनी अनासक्ति जगी? संसार के प्रति उदासीनता का भाव कितना जगा? द्रव्य रूप से तो इस जीव ने धर्म-क्रियाएँ करने में
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