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________________ 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 232 कषाय-प्रतिक्रमण : मावशुद्धि का सूचक मधुरव्याख्यानी श्री गौतममुनि जी म. सा. आज धर्मक्रियाएँ भी हो रही हैं और प्रतिक्रमण भी किया जा रहा है, किन्तु राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया एवं लोभ कषायों में कितनी कमी हो रही है, इस पर ध्यान ही नहीं जाता। मिथ्यात्वादि से सम्बद्ध पंचविध प्रतिक्रमण में कषाय-प्रतिक्रमण का विशेष महत्त्व है। कषाय के बढ़ते वेग को रोककर विभाव से स्वभाव में तथा विषमभाव से समता भाव में आना ही कषाय-प्रतिक्रमण का स्वरूप है। आचार्यप्रवर श्री हीराचन्द्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती मधुरव्याख्यानी श्री गौतममुनि जी म.सा. ने लक्ष्मीनगर स्थानक, जोधपुर में २० जून २००६ को कषाय प्रतिक्रमण पर प्रवचन फरमाया था, जिसका संकलन जिनवाणी के सह-सम्पादक श्री नौरतन जी मेहता द्वारा किया गया है। -सम्पादक श्रमण भगवान महावीर स्वामी का शासन सदा जयवन्त है। प्रभु महावीर के शासन में धर्म-साधना का सुन्दर अवसर प्राप्त हो रहा है, साथ ही साथ वीतराग वाणी श्रवण करने का दुर्लभ अवसर भी प्राप्त हो रहा है। एक सच्चा साधक जिसको आत्म-धर्म पर पूर्ण विश्वास है, पुण्य-पाप पर विश्वास है, स्वर्ग-नरक पर विश्वास है ऐसा जागरूक साधक वीतराग वाणी पर निश्चय ही विश्वास करता है। वीतराग वाणी के माध्यम से आत्म-साधना के लिए साधक के कुछ आवश्यक कर्त्तव्य बताये हैं उनमें एक आवश्यक कार्य हैप्रतिक्रमण। प्रतिक्रमण आवश्यक सूत्र है तो वह साधक की आत्म-डायरी भी है। प्रतिक्रमण आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम साधन है। सरलता और सौम्यता का राजमार्ग है। मर्यादित जीवन का सुरक्षित कवच है। कथनीकरनी की एकरूपता का सेतु है। भवरोग-निवारक अचूक औषधि है। साधना की निर्मलता का श्रेष्ठतम सोपान है। शल्यमुक्त जीवन का मंत्र है। श्रद्धा और आस्था का संवाहक है। संयमी जीवन की दीप्तिमान ज्योति है। ___ भगवान ने पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण बताये हैं- मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण, अव्रत का प्रतिक्रमण, प्रमाद का प्रतिक्रमण, कषाय का प्रतिक्रमण और अशुभयोग का प्रतिक्रमण । हर एक प्रतिक्रमण एक-दूसरे का पूरक है। किसी प्रतिक्रमण को हम न छोटा कह सकते हैं, न बड़ा। एक को महत्त्वपूर्ण बताकर दूसरे को कम नहीं कह सकते। आज हम कषाय प्रतिक्रमण पर विचार करेंगे। कषाय का प्रतिक्रमण भाव शुद्धि का सूचक है। कषाय का प्रतिक्रमण हमारे जीवन-शुद्धि की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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