________________
211
|15,17 नवम्बर 2006
| जिनवाणी मुख्यतः कायोत्सर्ग जिनमुद्रा में होना चाहिए। उसके लिए उल्लेख है
चतुरङ्गुलमग्रतः पादयोरन्तरं किंचिन्न्यूनं च पृष्ठतः।
कृत्वा समपादकायोत्सर्गेण जिनमुद्रा ।। दोनों पाँवों के बीच चार अंगुल और पीछे की ओर कुछ कम अन्तर रखकर कायोत्सर्ग करना जिनमुद्रा कहलाती है।
प्रलम्बितभुजद्वन्द्वमूर्ध्वस्वथस्वासितस्य वा।
स्थानं कायानपेक्षं यत् कायोत्सर्गः स कीर्तितः ।। खड़े होकर दो लटकती भुजाएँ रखकर अथवा बैठकर शरीर की अपेक्षा आसक्ति से रहित रहना कायोत्सर्ग है।
देवस्सियणियमादिसु, जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि ।
जिणगुण-चिंतण-जुत्तो, काउसग्गो तणुविन्सग्गो।। दैवसिक प्रतिक्रमण आदि शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार सत्ताईस श्वासोच्छ्वास तथा उपयुक्त काल तक जिनेन्द्र भगवान के गुणों का चिन्तन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना, कायोत्सर्ग नामक आवश्यक
जे केइ उवसग्गा, देवमाणुस-तिरिक्खऽचेदणिया।
ते सव्वे अधिआसे, काउन्सग्गे ठिदो संतो।। कायोत्सर्ग में स्थित सन्त देवकृत, मनुष्कृत तिर्यंचकृत तथा अचेतन कृत होने वाले समस्त उपसर्गो को समभावपूर्वक सहन करता है। श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में बताया है
वासीचन्दनकप्पो, जो मरणे जीविए य सममणो।
देहे य अपडिबद्धो, काउसग्गं हवइ तस्स ।। चाहे कोई भक्ति भाव से चन्दन लगाये, चाहे कोई द्वेष वश बसोले से छीले, चाहे जीवन रहे, चाहे इसी क्षण मृत्यु हो जावे; परन्तु जो व्यक्ति देह में आसक्ति नहीं रखता, वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग समीचीन
युवाचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार पैर से सिर तक शरीर को छोटे-छोटे हिस्सों में बाँटकर, प्रत्येक भाग पर चित्त को केन्द्रित कर स्वतः सूचन (auto suggestion) के द्वारा शिशिलता का सुझाव देकर पूरे शरीर को शिथिल करना है। पूरे ध्यान काल तक इस कायोत्सर्ग की मुद्रा को बनाये रखना है तथा शरीर को अधिक से अधिक स्थिर और निश्चल रखने का अभ्यास करना है। यह प्रेक्षा ध्यान की अपेक्षा से कायोत्सर्ग है।
विपश्यना पद्धति के अनुसार- 'सम्मा वायामो, सम्मासति, सम्मा समाधि' बताये हैं। सम्मा वायामो का अर्थ है, सम्यक् व्यायाम। मन का विशुद्धीकरण करने के लिए मन का व्यायाम । इसके लिए मन का निरीक्षण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org