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15, 17 नवम्बर 2006
जिनवाणी करना, मन की बुराई निकालना, बुराई को आने न देना, अच्छाई को कायम रखने का प्रयत्न करना, उसका संवर्द्धन करना, जो सद्गुण अपने में नहीं हैं, उन्हें प्राप्त करना, यह सम्यक् व्यायाम है। इस प्रकार स्थूल स्थूल बातें पहले जानना अर्थात् मोटा-मोटा श्वास का नाक से आना-जाना जानना, फिर जरा सूक्ष्म श्वास जानना, फिर श्वास का छूना जानना, इसके बाद नाक के त्रिकोण पर ध्यान केन्द्रित कर वहाँ क्या हो रहा है, जानना । श्वास के स्पर्श की कुछ न कुछ प्रतिक्रिया हो रही है, यह वर्तमान की सच्चाई है। धीरे-धीरे अन्य सच्चाइयाँ प्रकट होने लगती हैं। ज्यों-ज्यों मन सूक्ष्म होने लगता है, शरीर के अन्दर जो जैविक, रासायनिक, विद्युत चुम्बकीय प्रतिक्रियाएँ हो रही हैं उनका अनुभव होने लगता है। जागरूक रहकर वर्तमान की सच्चाई को जानना है। इसके द्वारा हम अनुभूतियों के स्तर पर ज्ञात से अज्ञात क्षेत्र को जानने लगते हैं। इसके बाद 'सम्मा समाधि' =सम्यक् समाधि = चित्त की समाधि होती है।
कायोत्सर्ग में द्रव्य उत्सर्ग और भाव उत्सर्ग आवश्यक है। जब तक द्रव्य और भाव से काया का उत्सर्ग नहीं किया जाता तब तक वह केवल द्रव्य कायोत्सर्ग ही कहलायेगा, औपचारिकता रहेगी।
कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा में, प्रतिज्ञा भंग का दोष न लगे इस हेतु से 'अन्नत्थ ऊससिएणं' सूत्र के अनुसार अपवाद रखें हैं। वे अपवाद हैं- श्वास लेना, श्वास छोड़ना, खाँसी आना, छींक आना, जम्हाई आना, डकार आना, अपान वायु छूटना, चक्कर आना, मूर्च्छा आना, सूक्ष्म अंगों का संचार होना, सूक्ष्म कफ का संचार तथा सूक्ष्म दृष्टि का संचार होना आदि ।
उपर्युक्त अपवाद होने पर भी निम्नलिखित दोष न लग जायें, इसकी सावधानी आवश्यक है।
१. घोड़क दोष- एक पैर टेढ़ा या ऊँचा रखना। २. लता दोष- लता की तरह शरीर कम्पित होना। ३. स्तंभादिक दोष-खंभे या दीवार का सहारा लेना । ४. माल दोष छत का मस्तक से स्पर्श करना। ५. उद्धि दोष- दोनों पैर जोड़ देना । ६. निगड दोष- पैर अधिक चौड़े रखना । ७. शबरी दोष- भीलनी की तरह गुह्यांग पर हाथ रखना । ८. खलिन दोष लगाम की तरह हाथ में रजोहरण या चरवला पकड़ना । ९. वधूदोष- बहू की तरह मस्तक नीचे रखना । १०. लंबुत्तर दोष- चोलपट्टा या धोती को नाभि से चार अंगुल से अधिक ऊँचा पहनना । ११. स्तन दोष- स्त्री की तरह स्तन पर कपड़ा ढाँकना । १२. संयती दोष- मस्तक को व अंगों को साध्वी या स्त्री की तरह सम्पूर्ण ढँकना । १३. भ्रमितांगुलि दोष- मंत्र गिनते-गिनते अंगुली अथवा नेत्र की भवों को घुमाना । १४. कोआ दोष- कौए की तरह इधर-उधर देखना । १५. कपित्थ दोष- धोती के मलिन होने के भय से, धोती को पटली को गोल बनाकर पैरों के बीच में दबाकर रखना । १६. सिरकम्प दोष - मस्तक हिलाते रहना। १७. मूक दोष- गूंगे की तरह हूँ-हूँ करना । १८. वारुणी दोष- जैसे शराब पकती है और बुड़बुड़ की आवाज आती है वैसी आवाज करना । १९. प्रेक्षा दोष- बन्दर की तरह ऊपर-नीचे दृष्टि घुमाना आदि ।
लंबुत्तर, स्तन व संयती दोष साध्वीजी को नहीं लगते, कारण उन्हें अपने सभी अंग वस्त्र से ढके रखना चाहिये । श्राविकाओं के लिए उपर्युक्त तीन एवं वधू दोष नहीं लगते, क्योंकि लज्जा स्त्री का भूषण होने
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