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________________ 204 जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 मस्तक को छूते हुए उदात्त स्वर से... 'भे' अक्षर कहना, प्रथम आवर्त है। इसी पद्धति से 'ज... व... णि' और 'ज्जं ... च... भे' ये शेष दो आवर्त भी करने चाहिए। प्रथम 'खमासमणो' के छह और इसी भाँति दूसरे 'खमासमणो' के छह कुल बारह आवर्त होते हैं । वन्दन विधि वन्दन आवश्यक बड़ा ही गंभीर एवं भावपूर्ण है। आज परंपरा की अज्ञानता के कारण इस ओर लक्ष्य नहीं दिया जा रहा है और केवल येन केन प्रकारेण मुख से पाठ का पढ़ लेना ही वन्दन समझ लिया गया है। परन्तु ध्यान में रखना चाहिए कि बिना विधि के क्रिया फलवती नहीं होती। अतः पाठकों की जानकारी के लिए स्पष्ट रूप से विधि का वर्णन किया जाता है गुरुदेव के आत्मप्रमाण क्षेत्र-रूप अवग्रह के बाहर आचार्य तिलक ने क्रमशः दो स्थानों की कल्पना की है, एक 'इच्छा - निवेदन स्थान' और दूसरा 'अवग्रहप्रवेशाज्ञायाचना स्थान ।' प्रथम स्थान में वन्दन करने की इच्छा का निवेदन किया जाता है, फिर जरा आगे अवग्रह के पास जाकर अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगी जाती है। - वन्दनकर्ता शिष्य, अवग्रह के बाहर प्रथम इच्छानिवेदन स्थान में यथाजात मुद्रा से दोनों हाथों में रजोहरण लिए हुए अर्द्धावनत होकर अर्थात् आधा शरीर झुका कर नमन करता है और 'इच्छामि खमासमणो' से लेकर 'निसीहियाए' तक का पाठ पढ़ कर वन्दन करने की इच्छा निवेदन करता है। शिष्य के इस प्रकार निवेदन करने के पश्चात् गुरुदेव यदि अस्वस्थ या किसी कार्य विशेष में व्याक्षिप्त होते हैं तो 'तिविहेण' 'त्रिविधेन" ऐसा शब्द कहते हैं, जिसका अर्थ होता है- 'अवग्रह से बाहर रह कर ही संक्षिप्त वन्दन करना । ' अतः अवग्रह से बाहर रह कर ही तिक्खुत्तो के पाठ के द्वारा संक्षिप्त वन्दन कर लेना चाहिए। यदि गुरुदेव स्वस्थ एवं अव्याक्षिप्त होते हैं तो 'छंदेणं' - 'छन्दसा' ऐसा शब्द कहते हैं; जिसका अर्थ होता है- 'इच्छानुसार वन्दन करने की सम्मति देना । गुरुदेव की ओर से उपर्युक्त पद्धति के द्वारा वन्दन करने की आज्ञा मिल जाने पर, शिष्य आगे बढ़ कर, अवग्रह क्षेत्र के बाहर, किन्तु पास ही 'अवग्रह-प्रवेशाज्ञा याचना' नामक दूसरे स्थान में पुनः अर्द्धावनत होकर नमन करता है और गुरुदेव से 'अणुजाणह मे मिउग्गह' इस पाठ के द्वारा अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगता है। आज्ञा माँगने पर गुरुदेव अपनी ओर से 'अणुजाणामि' पद के द्वारा आज्ञा प्रदान करते हैं। आज्ञा मिलने के बाद यथाजात मुद्रा- जन्मते समय बालक की अथवा दीक्षा लेने के समय शिष्य की जैसी मुद्रा होती है वैसी दोनों हाथ अंजलिबद्ध कपाल पर रखने की मुद्रा से 'निसीहि“ पद कहते हुए अवग्रह में प्रवेश करना चाहिए। बाद में रजोहरण से भूमि प्रमार्जन कर, गुरुदेव के पास गोदोहिका (उकडू) आसन से बैठकर, प्रथम के तीन आवर्त 'अहो कायं काय' पूर्वोक्त विधि के अनुसार करके 'संफास' कहते हुए गुरु चरणों में मस्तक लगाना चाहिए। तदनन्तर 'खमणिज्जो भे किलामो' के द्वारा चरण स्पर्श करते समय गुरुदेव को जो बाधा होती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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