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| 15,17 नवम्बर 2006
जिनवाणी
203 का नाश करने वाला है। प्रतिक्रमण सूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य तिलक का अभिमत। 'आयस्य ज्ञानादिरूपस्य शातना खण्डना आशातना । निरुक्त्या यलोपः।' ।
आशातना के भेदों की कोई इयत्ता नहीं है। आशातना के स्वरूप-परिचय के लिए दशाश्रुतस्कन्धसूत्र में तैंतीस आशातनाएँ वर्णन की गई हैं। यहाँ सक्षेप में द्रव्यादि चार आशातनाओं का निरूपण किया जाता है, आचार्य हरिभद्र के उल्लेखानुसार इनमें तैंतीस का ही समावेश हो जाता है। 'तित्तीसं पि चउसु दव्वाइसु समोयरंति।' द्रव्य आशातना का अर्थ है- गुरु आदि रात्निक के साथ भोजन करते समय स्वयं अच्छा-अच्छा ग्रहण कर लेना और बुरा-बुरा रात्निक को देना। यही बात वस्त्र, पात्र आदि के संबंध में भी है। . क्षेत्र आशातना का अर्थ है- अड़कर चलना, अड़कर बैठना इत्यादि। काल आशातना का अर्थ है- रात्रि या विकाल के समय रात्निकों के द्वारा बोलने पर भी उत्तर न देना, चुप रहना। भाव आशातना का अर्थ है- आचार्य आदि रात्निकों को 'तू' करके बोलना, उनके प्रति दुर्भाव रखना, इत्यादि। बारह आवर्त'
प्रस्तुत पाठ में आवर्त क्रिया विशेष ध्यान देने योग्य है। जिस प्रकार वैदिक मंत्रों में स्वर तथा हस्तसंचालन का ध्यान रखा जाता है, उसी प्रकार इस पाठ में भी आवर्त के रूप में स्वर तथा चरण-स्पर्श के लिए होने वाली हस्त-संचालन क्रिया के संबंध में लक्ष्य दिया गया है। स्वर के द्वारा वाणी में एक विशेष प्रकार का ओज एवं माधुर्य पैदा हो जाता है, जो अन्तःकरण पर अपना विशेष प्रभाव डालता है।
आवर्त के संबंध में एक बात और है। जिस प्रकार वर और कन्या अग्नि की प्रदक्षिणा करने के बाद पारस्परिक कर्तव्य-निर्वाह के लिए आबद्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार आवर्त-क्रिया गुरु और शिष्य को एकदूसरे के प्रति कर्त्तव्य-बंधन में बाँध देती है। आवर्तन करते समय शिष्य गुरुदेव के चरणकमलों का स्पर्श करने के बाद दोनों अंजलिबद्ध हाथों को अपने मस्तक पर लगाता है ; इसका हार्द है कि वह गुरुदेव की आज्ञाओं को सदैव मस्तक पर वहन करने के लिए कृतप्रतिज्ञ है।
प्रथम के तीन आवर्त- 'अहो'- 'काय' - 'काय' इस प्रकार दो-दो अक्षरों से पूरे होते हैं। कमलमुद्रा से अंजलिबद्ध दोनों हाथों से गुरु-चरणों को स्पर्श करते हुए मन्द स्वर से 'अ' अक्षर कहना, तत्पश्चात् अंजलिबद्ध हाथों को मस्तक पर लगाते हुए उच्च स्वर से 'हो' अक्षर कहना, यह पहला आवर्तन है। इसी प्रकार का...यं' और 'का...य' के शेष दो आवर्तन भी किए जाते हैं।
अगले तीन आवर्त- ‘ज त्ता भे' 'जवणि'- 'ज्जं च भे' इस प्रकार तीन-तीन अक्षरों के होते हैं। कमल मुद्रा से अंजलि बाँधे हुए दोनों हाथों से गुरु चरणों को स्पर्श करते हुए अनुदात्त- मन्द स्वर से...'ज' अक्षर कहना, पुनः हृदय के पास अंजलि लाते हुए स्वरित-मध्यम स्वर से ....'त्ता' अक्षर कहना, पुनः अपने
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