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________________ 202 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी मूलार्थ है काय अर्थात् शरीर का सबसे नीचे का भाग। शरीर का सबसे नीचे का भाग चरण ही है, अतः अधः काय का भावार्थ चरण होता है। 'अधः कायः पादलक्षणस्तमधः कार्यं प्रति ।' -आचार्य हरिभद्र 'काय संफास' का संस्कृत रूपान्तर 'कायसंस्पर्श' होता है। इसका अर्थ है 'काय से सम्यक्तया स्पर्श करना।' यहाँ काय से क्या अभिप्राय है ? यह विचारणीय है। आचार्य जिनदास काय हाथ ग्रहण करते हैं। 'अप्पणो काएण हत्थेहिं फुसिस्सामि ।" आचार्य श्री का अभिप्राय यह है कि आवर्तन करते समय शिष्य अपने हाथ से गुरु चरणकमलों को स्पर्श करता है, अतः यहाँ काय से हाथ ही अभीष्ट है। कुछ आचार्य काय से मस्तक लेते हैं। वंदन करते समय शिष्य गुरुदेव के चरण-कमलों में अपना मस्तक लगाकर वन्दना करता है, अतः उनकी दृष्टि से काय-संस्पर्श से मस्तक संस्पर्श ग्राह्य है। आचार्य हरिभद्र काय का अर्थ सामान्यतः निज देह ही करते है- 'कायेन निजदेहेन संस्पर्शः कायसंस्पर्शस्तं करोमि ।' " परन्तु शरीर से स्पर्श करने का अभिप्राय हो सकता है? यह विचारणीय है । सम्पूर्ण शरीर से तो स्पर्श हो नहीं सकता, वह होगा मात्र हस्त-द्वारेण या मस्तकद्वारेण । अतः प्रश्न है कि सूत्रकार ने विशेषोल्लेख के रूप में हाथ या मस्तक न कहकर सामान्यतः शरीर ही क्यों कहा? जहाँ तक विचार की गति है, इसका यह समाधान है कि शिष्य गुरुदेव के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण करना चाहता है, सर्वस्व के रूप में शरीर के कण-कण से चरणकमलों का स्पर्श करके धन्य-धन्य होना चाहता है। प्रत्यक्ष में हाथ या मस्तक स्पर्श भले हो, परन्तु उनके पीछे शरीर के कण-कण में स्पर्श करने की भावना है। अतः सामान्यतः काय - संस्पर्श कहने में श्रद्धा के विराट् रूप की अभिव्यक्ति रही हुई है। जब शिष्य गुरुदेव के चरणकमलों में मस्तक झुकाता है, तो उसका अर्थ होता है गुरु चरणों में अपने मस्तक की भेंट अर्पण करना। शरीर में मस्तक ही तो मुख्य है। अतः जब मस्तक अर्पण कर दिया गया तो उसका अर्थ है अपना समस्त शरीर ही गुरुदेव के चरणकमलों में अर्पण कर देना। समस्त शरीर को गुरुदेव के चरण-कमलों में अर्पण करने का भाव यह है कि अब मैं अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ आपकी आज्ञा में चलूँगा, आपके चरणों का अनुसरण करूँगा । शिष्य का अपना कुछ नहीं है। जो कुछ भी है, सब गुरुदेव का है। अतः काय के उपलक्षण से मन और वचन का अर्पण भी समझ लेना चाहिए । आशातना 'आशातना' शब्द जैन आगम साहित्य का एक प्राचीन पारिभाषिक शब्द है। जैन धर्म अनुशासनप्रधान धर्म है। अतः यहाँ पद-पद पर अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु और गुरुदेव का, किंबहुना, ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप धर्म-साधना तक का भी सम्मान रखा जाता है। सदाचारी गुरुदेव और अपने सदाचार के प्रति किसी भी प्रकार की अवज्ञा एवं अवहेलना, जैन धर्म में स्वयं एक बहुत बड़ा पाप माना गया है। अनुशासन जैनधर्म का प्राण है । आशातना के व्युत्पत्ति - सिद्ध अर्थ है- 'ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही वास्तविक आय-लाभ है, उसकी शातना-खण्डना, आशातना है ।' गुरुदेव आदि का अविनय ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप आत्मगुणों के लाभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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