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जिनवाणी
15, 17 नवम्बर 2006
आस्रव निरोध है ।'
'आस्रवनिरोध रूप संवर का फल तपश्चरण है, तपश्चरण से कर्ममल की निर्जरा होती है; निर्जरा के द्वारा क्रिया की निवृत्ति और क्रियानिवृत्ति से मन, वचन तथा काययोग पर विजय प्राप्त होती है।'
'मन, वचन और शरीर के योग पर विजय पा लेने से जन्ममरण की लम्बी परंपरा का क्षय होता है, जन्ममरण की परंपरा के क्षय से आत्मा को मोक्षपद की प्राप्ति होती है। यह कार्यकारणभाव की निश्चित शृंखला हमें सूचित करती है कि समग्र कल्याणों का एकमात्र मूल कारण विनय है।'
प्राचीन भारत में विनय के सिद्धान्त पर अत्यधिक बल दिया गया है। आपके समक्ष 'इच्छामि खमासमणो' के रूप में गुरुवन्दन का पाठ है, देखिए कितना भावुकतापूर्ण है ? 'विणओ जिणसासणमूलं' की भावना का कितना सुन्दर प्रतिबिम्ब है? शिष्य के मुख से एक-एक शब्द प्रेम और श्रद्धा के अमृत रस में डूबा
निकल रहा है।
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वन्दना करने के लिए पास में आने की भी क्षमा माँगना, चरण छूने से पहले अपने संबंध में 'निसीहियाए' पद के द्वारा सदाचार से पवित्र रहने का गुरुदेव को विश्वास दिलाना, चरण छूने तक के कष्ट की भी क्षमायाचना करना, सायंकाल में दिन संबंधी और प्रातः काल में रात्रि संबंधी कुशलक्षेम पूछना, संयमयात्रा की अस्खलना भी पूछना, अपने से आवश्यक क्रिया करते हुए जो कुछ भी आशातना हुई हो तदर्थ क्षमा माँगना, पापाचारमय पूर्वजीवन का परित्याग कर भविष्य में नये सिरे से संयम-जीवन के ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना, कितना भावभरा एवं हृदय के अन्तस्तम भाग को छूने वाला वन्दन का क्रम है। स्थान-स्थान पर गुरुदेव के लिए 'क्षमाश्रमण' संबोधन का प्रयोग, क्षमा के लिए शिष्य की कितनी अधिक आतुरता प्रकट करता है; तथा गुरुदेव को किस ऊँचे दर्जे का क्षमामूर्ति संत प्रमाणित करता है ।
क्षमाश्रमण
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'श्रमु' धातु तप और खेद अर्थ में व्यवहृत होती है। अतः जो तपश्चरण करता है एवं संसार से सर्वथा निर्विण्ण रहता है, वह श्रमण कहलाता है। क्षमाप्रधान श्रमण क्षमाश्रमण होता है। क्षमाश्रमण में क्षमा से मार्दव आदि दशविध श्रमण-धर्म का ग्रहण हो जाता है।' जो श्रमण क्षमा, मार्दव आदि महान् आत्मगुणों से सम्पन्न हैं, अपने धर्मपथ पर दृढ़ता के साथ अग्रसर हैं, वे ही वन्दनीय हैं। यह क्षमाश्रमण शब्द, किसको वन्दन करना चाहिए- ए- इस पर बहुत सुन्दर प्रकाश डालता है।
शिष्य, गुरुदेव को वन्दन करने एवं अपने अपराधों की क्षमा याचना करने के लिए आता है, अतः क्षमाश्रमण संबोधन के द्वारा प्रथम ही क्षमादान प्राप्त करने की भावना अभिव्यक्त करता है। आशय यह है कि 'हे गुरुदेव ! आप क्षमाश्रमण हैं, क्षमामूर्ति हैं। मुझ पर कृपाभाव रखिए। मुझसे जो भी भूलें हुई हों, उन सबके लिए क्षमा प्रदान कीजिए। '
अहो काय काय - संफासं
'अहोकायं' का संस्कृत रूपान्तर 'अधः कार्य' है, जिसका अर्थ 'चरण' होता है । अधः काय का
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