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जिनवाणी
15, 17 नवम्बर 2006
दूसरा कथानक भी इसी युग का है। श्रीकृष्णचन्द्र के पुत्रों में से शाम्ब और पालक नामक दो पुत्र वन्दना के इतिहास में सुविश्रुत हैं। शाम्ब बड़ा ही धर्म - श्रद्धालु एवं उदार प्रकृति का युवक था । परन्तु पालक बड़ा ही लोभी एवं अभव्य प्रकृति का स्वामी था। एक दिन प्रसंगवश श्रीकृष्ण ने कहा कि 'जो कल प्रातःकाल सर्वप्रथम भगवान् नेमिनाथ जी के दर्शन करेगा, वह जो माँगेगा, दूँगा ।' प्रातःकाल होने पर शाम्ब ने जागते ही शय्या से नीचे उतर कर भगवान् को भाववन्दन कर लिया। परन्तु पालक राज्य लोभ की मूर्च्छा से घोड़े पर सवार होकर जहाँ भगवान् का समवसरण था वहाँ वन्दन करने के लिए पहुँचा। ऊपर से वन्दन करता रहा, किन्तु अन्दर में लोभ की आग जलती रही। सूर्योदय के पश्चात् श्रीकृष्ण ने पूछा कि भगवन्! आज आपको पहले वन्दना किसने की ? भगवान् ने उत्तर दिया- 'द्रव्य से पालक ने और भाव से शाम्ब ने । ' उपहार शाम्ब को प्राप्त हुआ।
उक्त कथानकों से द्रव्य वन्दन और भाव वन्दन का अन्तर स्पष्ट है। भाववन्दन ही आत्मशुद्धि का मार्ग है। केवल द्रव्य वन्दन तो अभव्य भी कर सकता है । परन्तु अकेले द्रव्य वन्दन से होता क्या है? द्रव्य वन्दन में जब तक भाव का प्राण न डाला जाए, तब तक आवश्यक शुद्धि का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता ।
हितोपदेशी गुरुदेव को विनम्र हृदय से अभिवन्दन करना और उनकी दिन तथा रात्रि संबंधी सुखशांति पूछना, शिष्य का परम कर्त्तव्य है । अंधकार में भटकते हुए, ठोकरें खाते हुए मनुष्य के लिए दीपक की जो स्थिति है, ठीक वही स्थिति अज्ञानान्धकार में भटकते हुए शिष्य के प्रति गुरुदेव की है। अतएव जैन संस्कृति में कृतज्ञता - प्रदर्शन के नाते पद-पद पर गुरुदेव को वन्दन करने की परम्परा प्रचलित है। अरिहन्तों के नीचे गुरुदेव ही आध्यात्मिक साम्राज्य के अधिपति हैं । उनको वन्दन करना भगवान् को वन्दन करना है। इस महिमाशाली गुरुवन्दन के उद्देश्य को एवं इसकी सुन्दर पद्धति को प्रस्तुत पाठ में बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
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गुरुचरणों का स्पर्श मस्तक पर लगाने से ही भारतीय शिष्यों को ज्ञान की विभूति मिली है। गुरुदेव के प्रति विनय, भक्ति ही हमारी कल्याण-परम्पराओं का मूल स्रोत है। आचार्य उमास्वाति की वाणी सुनिए, वह क्या कहते हैं
विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चासवनिरोधः ।। संवरफलं तपोबलमय तपसो निर्जराफलं दृष्टम् । तस्मात् क्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥ योगनिरोधाद् भवसंततिक्षयः संततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ।।
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'गुरुदेव के प्रति विनय का भाव रखने से सेवाभाव की जागृति होती है, गुरुदेव की सेवा से शास्त्रों के गंभीर ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान का फल पापाचार से निवृत्ति है और पापाचार की निवृत्ति का फल
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