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________________ 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 205 उसकी क्षमा माँगी जाती है। पश्चात् 'अप्पकिलंताणं बहु सुभेण भे दिवसो वइक्कंतो' कहकर दिन संबंधी कुशलक्षेम पूछा जाता है। अनन्तर गुरुदेव भी 'तथा' कह कर अपने कुशल क्षेम की सूचना देते हैं और शिष्य का कुशल क्षेम भी पूछते हैं। तदनन्तर शिष्य 'ज त्ता भे' 'ज व णि' 'ज्जं च भे' इन तीन आवर्ती की क्रिया करे एवं संयम यात्रा तथा इन्द्रिय-संबंधी और मन संबंधी शांति पूछे। उत्तर में गुरुदेव भी 'तुब्भं पि वट्टइ' कहकर शिष्य से उसकी यात्रा और यापनीय संबंधी सुख शांति पूछे। तत्पश्चात् मस्तक से गुरु चरणों का स्पर्श करके 'खामेमि खमासमणो' देवसियं वइक्कमं' कहकर शिष्य विनम्र भाव से दिन संबंधी अपने अपराधों की क्षमा माँगता है। उत्तर में गुरु भी 'अहमपि क्षमयामि' कहकर शिष्य से स्वकृत भूलों की क्षमा माँगते हैं। क्षामणा करते समय शिष्य और गुरु के साम्य - प्रधान सम्मेलन में क्षमा के कारण विनम्र हुए दोनों मस्तक कितने भव्य प्रतीत होते हैं? जरा भावुकता को सक्रिय कीजिए । वन्दन प्रक्रिया में प्रस्तुत शिरोनमन आवश्यक का भद्रबाहु श्रुतकेवली बहुत सुन्दर वर्णन करते हैं। इसके बाद 'आवस्सियाए' कहते हुए अवग्रह से बाहर आना चाहिए । अवग्रह से बाहर लौट कर 'पडिक्कमामि' से लेकर 'अप्पाणं वोसिरामि' तक का सम्पूर्ण पाठ पढ़ कर प्रथम खमासमणो पूर्ण करना चाहिए। दूसरा खमासमणो भी इसी प्रकार पढ़ना चाहिए। केवल इतना अन्तर है कि दूसरी बार 'आवसियाए' पद नहीं कहा जाता है और अवग्रह से बाहर न आकर वहीं संपूर्ण खमासमणो पढ़ा जाता है तथा अतिचार चिन्तन एवं श्रमण सूत्र नमो चउवीसाए- पाठान्तर्गत 'तस्स धम्मस्स' तक गुरु चरणों में ही पढ़ने के बाद 'अब्भुट्ठिओमि' कहते हुए उठ कर बाहर आना चाहिए। प्रस्तुत पाठ में जो 'बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कंतो' के अंश में 'दिवसो वइक्कंतो' का पाठ है उसके स्थान में रात्रिक प्रतिक्रमण में 'राई वइक्कंता' पाक्षिक प्रतिक्रमण में 'पक्खो वइक्कंतो' चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में 'चउमासी वइक्कंता' तथा सांवत्सरिक प्रतिकमण में 'संवच्छरो वइक्कंतो' ऐसा पाठ पढ़ना चाहिए । संदर्भ १. 'वदि' अभिवादनस्तुत्योः, इति कायेन अभिवादने वाचा स्तवने । आवश्यक चूर्णि २. 'खमागहणे य मद्दवादयो सूइता' - आचार्य जिनदास ३. 'सूत्राभिधानगर्भाः काय - व्यापारविशेषाः' - आचार्य हरिभद्र, आवश्यक वृत्ति 'सूत्र - गर्भा गुरुचरणकमलन्यस्तहस्तशिरः स्थापनरूपाः ।' प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, वन्दनक द्वार 'त्रिविधेन' का अभिप्राय है कि यह समय अवग्रह में प्रवेश कर द्वादाशावर्त वन्दन करने का नहीं है । अतः तीन बार तिक्खुत्तो के पाठ के द्वारा, अवग्रह से बाहर रह कर ही संक्षिप्त वन्दन कर लेना चाहिए । 'त्रिविधेन' शब्द मन, वचन, काय योग की एकाग्रता पर भी प्रकाश डालता है। तीन बार वन्दन अर्थात् मन, वचन एवं काय योग से वन्दन । 'निसीह' बाहर के कार्यों से निवृत्त होकर गुरु चरणों में उपस्थित होने रूप नैषेधिकी समाचारी का प्रतीक है। इसीलिए आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत प्रसंग पर कहते हैं- 'ततः शिष्यो नैषेधिक्या प्रविश्य ।' अर्थात् शिष्य, अवग्रह में 'निसीह' कहता हुआ प्रवेश करे। ४. ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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