________________
||15,17 नवम्बर 2006
| जिनवाणी प्रायश्चित्त भी तप है। आत्मशुद्धि का एक साधन है। जिसे भाई/बहिन कर रहे हैं। आज तीन भाई/बहिनों के २८ की तपस्या है। सबसे मासखमण नहीं किया जा सकता। क्या किया जा सकता है? हरपल जागृत रहकर गलती का पश्चात्ताप। पश्चात्ताप चालू हो जायेगा तो गलती होना बंद हो जायेगा। पाप की स्वीकृति ही प्रतिक्रमण है। मैं गलती कर रहा हूँ, इसे स्वीकार कर लोगे तो यह प्रतिक्रमण है। जब तक मन में ये भाव रहेंगे- मैं बड़ा हूँ, मैं क्यों जाऊँ खमाने, खमायेगा तो वह। जब तक हमने गलती मानी ही नहीं तो वह छूटेगी कैसे? और छूटी ही नहीं तो वही ८४ का चक्कर मौजूद है।
___ पश्चात्ताप कीजिये और वह हर समय किया जा सकता है। प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर के समय उभयकाल प्रतिक्रमण और बीच के २२ तीर्थंकरों के समय जब दोष, तभी प्रतिक्रमण । व्यवहार जगत में अभी बाह्य शुद्धि तत्काल की जाती है, भीतरी शुद्धि का कोई लक्ष्य नहीं है। कँवर साहब का वस्त्र पान से खराब हो जाए तो तुरन्त वस्त्र बदलते हैं। शुद्धि हेतु मानो- बहनों के यहाँ की बिन्दी वहाँ लग जाए तो दर्पण में देखकर सही स्थान पर करती हैं। किसी पक्षी की बीट आदि कपड़े पर, बालों पर गिर गई तो पहले घर जाकर वस्त्र परिवर्तन एवं सफाई। बाहर में कहीं अशुद्धि रह जाय तो तत्काल शुद्धि। जब भी बाहरी गंदगी तभी शुद्धि और अन्तरंग कषाय संबंधी गलती होने पर सोचते हैं- सायंकाल प्रतिक्रमण के बाद क्षमायाचना कर लेंगे। अभी क्या जल्दी है, पाक्षिक प्रतिक्रमण में क्षमायाचना कर लेंगे। वह भी टाल देंगे फिर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण की बात करेंगे। फिर सोचेंगे साल भर में एक बार संवत्सरी आती है उस दिन साथ-साथ क्षमायाचना कर लेंगे, उस दिन भी खमतखामणा करते समय हाथ सामने एवं मुँह बगल में करके अनमनेपन से क्षमायाचना करते हैं। लेकिन भाई क्षमायाचना करना शूली की वेदना शूल में समाप्त करना है। कितनी ही बड़ी गलती हो, प्रायश्चित्त से समाप्त एवं पश्चात्ताप से शुद्ध हो सकती है। पर होवे कैसे? वह भाव से हो तब।
दृढ़प्रहरी ४ मोटी हत्या करके आए- गौ, ब्राह्मण, प्रमदा एवं बालक की हत्याएँ करके आये, परन्तु पश्चात्ताप की आग में जलने लगे। उपशम, संवर, विवेक के द्वारा अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त कर लिया
गौ, ब्राह्मण, प्रमदा, बालक की, मोटी हत्या चारों । तेहणो करणहार प्रभु भजने, होत हत्या सूं न्यारो ।।
पद्म प्रभु पावन नाम तिहारो, पतित उद्धारण हारो..... इसलिये तीर्थंकर भगवान महावीर ने दोनों समय प्रतिक्रमण की बात कही। प्रतिक्रमण में भाई जोरजोर से 'तस्स मिच्छामि दुक्कड़ देते हैं, पर भीतर में जूं भी नहीं रेंगती। प्रकृति में अन्तर नहीं आया है, पर बाहर में जोर-जोर से मिच्छामि दुक्कड़। मेरा कहने का तात्पर्य है- खमतखामणा मात्र बोलने तक सीमित न
हो।
पश्चात्ताप के रूप में प्रतिक्रमण किया जाए तो आत्मशुद्धि होते देर नहीं लगेगी। यदि भावना की प्रकृष्टता में प्रतिक्रमण कर रहा है और उत्कृष्ट रसायन आ जावे तो जीव तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन कर सकता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org