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________________ [22] जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 है, इससे बढ़कर और कौनसा पद है? वह कैसे मिल सकता है- अनशन तप नहीं कर सकते तो प्रतिक्रमण रूप सरल रास्ता तीर्थंकर भगवान् ने बताया। यदि फिर भी थे नहीं तिरो, तो थांकी मरजी। फिर भी अगर पत्थर की नाव में बैठकर डूबना चाहते हो तो भगवान् के पास भी कोई उपाय नहीं। संसार की तरणी में मोहमाया में डूबना चाहते हो तो भगवान के पास कोई.... । जब विभाव में जाओ, स्वभाव में आओ, तत्काल प्रायश्चित्त करो, प्रतिक्रमण करो... आगे का मार्ग प्रशस्त कर आत्मा से परमात्मा... ... नर से नारायण.......बन सकोगे..... __व्यवहार जगत में प्रचलित भूल, दूसरों को कष्ट या पीड़ा देना, हानि पहुँचाना, अपमानित करना या जीवन रहित करना, माना जा रहा है और इसी भूल की धूल का मिच्छा मि दुक्कडं, क्षमायाचना, पश्चात्ताप किया जाता है, जबकि शास्त्र में ५ प्रकार का प्रतिक्रमण बताया गया है- मिथ्यात्व से हटकर वास्तविक सही श्रद्धा में दृढ़ आस्था होना, यदि इसमें कोई अतिक्रम, व्यतिक्रम लगा हो तो मिथ्या दुष्कृत देकर श्रद्धा दृढ़ बनाना। अव्रत-मर्यादा रहित जीवन से हटकर अप्रत्याख्यानावरण कषाय को छोड़कर एक से लेकर बारह व्रत स्वीकार करना। देशविरति एवं सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर सर्वविरति रूप चारित्र स्वीकार करना। मैं क्यों नहीं कर रहा? कितना कर सकता हूँ? कहाँ अटक रहे हैं? कहाँ भटक रहे हैं? नौ दिन चले अढाई कोस ! वाली कहावत तो चरितार्थ नहीं हो रही है; चिन्तन करना, पुरुषार्थ करना। पाँच प्रकार के प्रमाद छोड़कर अप्रमत्त बनना। काषायिक मलिन भावों से ऊपर उठकर राग-द्वेष रहित वीतराग बनना तथा सम्पूर्ण योगों का निरोध कर अयोगी बनना। इस भाव प्रतिक्रमण की ओर किन्हीं महापुरुषों का ही ध्यान जाता है। आचार्य आषाढ़भूति ने अन्तिम समय में अपने शिष्यों को संलेखना संथारा करवाया और कहा- देव बनने पर यहाँ आकर कहना। नहीं आने पर श्रद्धा डावांडोल हुई। बच्चों की विराधना कर, आभूषण लेकर, गृहस्थ में जाने की भावना बना ली, देव के आकर कहने पर संभले और फिर से श्रद्धा में मजबूती की। मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण हुआ। राजकुमार मेघ तीर्थंकर भगवान् महावीर की देशना से दीक्षित हुए। शयन का स्थान दरवाजे पर मिला। पूर्व के राजकुमार के रूप के सम्मान का खयाल आया और निद्रा नहीं आने पर विचार बदला और प्रातःकाल रजोहरण आदि उपकरण भगवान् महावीर को संभलाने गये। पूर्व जन्म का दृष्टान्त सुनने के बाद व्रतों में स्थिरता आई और अपने को संतों के चरणों में समर्पित कर दिया, फिर से महाव्रत स्वीकार किये। अव्रत का प्रतिक्रमण हुआ। गणधर गौतम के चरणों में श्रावक आनन्द ने वंदन नमस्कार के बाद पृच्छा की। क्या भगवन्! श्रावक को अवधिज्ञान हो सकता है? हाँ- आनन्द! हो सकता है। भगवन् मुझे भी इतना अवधिज्ञान हुआ है। आनन्द- इतना अवधिज्ञान नहीं हो सकता। उपयोग नहीं लगाने से गणधर गौतम स्वामी ने ऐसा कह दिया। पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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