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________________ |15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 191 ग्रहण करता है। जैसे सुदर्शन श्रावक ने अर्जुनमाली के उपसर्ग को जानकर अथवा साधक रात को सोने से पहले यह संथारा कर लेता है। यह संथारा आगार / छूट के साथ किया जाता है । यदि इस स्थिति में प्राणान्त हो भी जाए तो सत्परिणामों में वह सद्गति का अधिकारी बन जाता है और उपसर्ग टल जाय तो संथारा पाल लिया जाता है। यह संथारा प्रतिदिन रात्रि में शयन के पूर्व भी किया जाता है। २. मरणान्तिक संथारा- यावज्जीवन के लिये किया जाता है । यह तिविहार एवं चौविहार त्याग के साथ होता है। यह मृत्यु पर्यन्त स्वीकार किया जाता है। संलेखना दो प्रकार की होती है- १. काय संलेखना २. कषाय संलेखना । काय संलेखना का अर्थ है या को कृश करना और कषाय संलेखना का तात्पर्य है क्रोधादि कषायों को कृश करना। कषाय संलेखना अंतरंग संलेखना है, जिसके बिना काय संलेखना अधूरी है । काय संलेखना बाह्य संलेखना है। पहले कषायों को त्यागना है, फिर काया को साधते हुए चित्त के भावों को निर्मलतम बनाना है। साधक सोचता है कि जन्म के साथ ही जब मृत्यु सुनिश्चित है तब मृत्यु से भयभीत क्यों? जीर्ण-शीर्ण देह या वस्त्र छोड़ने में डर कैसा? यह तो छोड़ना ही पड़ता है, तभी नूतन देह धारण की जा सकती है। काय संलेखना क्रमशः की जाती है। जिसमें अनुक्रम से आहार, दूध, छाछ, कांजी अथवा गरम जल का भी त्याग करते हुए शक्ति अनुसार उपवास किया जाता है । तदनन्तर सर्व प्रकार के यत्नों से पंच नमस्कार मंत्र को मन में धारण करते हुए शरीर को छोड़ा जाता है। आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. ने निमाज में तेले की तपस्या के साथ संलेखना एवं फिर संथारा स्वीकार कर एक आदर्श उदाहरण समाज के सम्मुख रखा । संलेखना विधि संलेखनापूर्वक संथारा विधि बड़ी मनोवैज्ञानिक है। यह आत्मदमन की नहीं आत्मशोधन की विधि है। साधक के मनोबल, परिस्थिति, चिकित्सक, परामर्शक तथा पारिवारिक जनों की भावना को समझ कर सर्वप्रथम चतुर्विध संघ की अनुमति ली जाती है। संत मुनिजन या महासतियाँ जी संघ प्रमुख की आज्ञा लेकर पंच परमेष्ठी और अपनी आत्मा, इन छहों की साक्षी से आलोचना, निन्दा और गर्हा करते हैं। इनमें मुख्य सोपान निम्नानुसार हैं - संलेखना की तैयारी - मारणान्तिक संलेखना - संथारा के समय पौषधशाला का प्रतिलेखन कर, पौषधशाला, का प्रमार्जन कर, दर्भ (घास, तृण) आदि का बिछौना बिछा कर, पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके पर्यंक तथा पद्मासन आदि आसन से बैठकर, दसों अंगुलियाँ सहित दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोले देव, गुरु को वन्दना - नमस्कार हो सिद्ध भगवन्त को, नमस्कार हो महाविदेह क्षेत्र में विचरने वाले सभी अरिहन्त भगवन्तों को, नमस्कार हो मेरे धर्माचार्य को । तत्पश्चात् सभी साधु भगवन्तों को तथा समस्त जीव राशि से अपने द्वारा किये गये दोषों हेतु अपने द्वारा पूर्व में किये गये व्रतों में लगने वाले अतिचारों हेतु क्षमा माँगते हुए प्रतिज्ञा की जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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