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________________ 192 जिनवाणी |15,17 नवम्बर 2006 प्रतिज्ञा- अब मैं सर्व प्रकार के प्राणातिपात का, मृषावाद का, अदत्तादान का, मैथुन और परिग्रह का त्याग करता/करती हूँ। इसी प्रकार क्रोध से यावत् मिथ्यादर्शन शल्य तक १८ पाप रूप अकरणीय सावद्य योगों का त्याग करता/करती हूँ। जीवनभर के लिये इन पापों को तीन करण और तीन योग से न करूँगा, न करवाऊँगा और न करते हुए का अनुमोदन मन, वचन और काया से करूंगा। साथ ही अशन, पान, खादिम एवं स्वाद से संबंधित समस्त चार आहारों/तीन आहार (अशन, खादिम एवं स्वादिम) का त्याग करता/करती हूँ। आलोचना- जीवन पर्यन्त मैंने अपने इस शरीर का पालन एवं पोषण किया है। जो मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम, अवलम्बन रूप, विश्वास योग्य, सम्मत-अनुमत, आभूषणों की पेटी के समान प्रिय रहा है और जिसकी मैंने सर्दी से, गर्मी से, भूख से, प्यास से, सर्प से, चोर से, डाँस से, मच्छर, वात-पित्त-कफ एवं सन्निपात आदि अनेक प्रकार के रोग तथा आतंक से, परीषह और देव एवं तिर्यंच के उपसर्ग आदि से रक्षा की है, ऐसे शरीर का मैं अन्तिम समय तक त्याग करता हूँ। इस प्रकार शरीर के ममत्व को त्याग कर, संलेखना रूप तप में अपने आप को समर्पित करके एवं जीवन और मरण की आकांक्षा रहित होकर विहरण करूंगा/करूँगी। अतिचार- मारणांतिक संलेखना के पाँच अतिचार हैं जो साधक एवं श्रमणोपासक के जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं हैं। अतः साधक चिन्तन करता है कि मैंने इस लोक के सुखों की इच्छा की हो, परलोक में देवता, इन्द्र आदि बनने की इच्छा की हो, बहुत काल जीने की इच्छा या रोग से घबरा कर शीघ्र मरने की इच्छा की हो, काम भोग की अभिलाषा की हो तो उसका पाप मेरे लिये निष्फल हो। इस प्रकार जीवन भर की अच्छी-बुरी क्रियाओं का लेखा-जोखा लगा कर अन्त समय में समस्त पापवृत्तियों का त्याग करना, मन-वचन और काया को संयम में रखना, ममत्व भाव से मन को हटाकर, आत्म-चिन्तन में लगाना, भोजन, पानी तथा अन्न सभी उपाधियों को त्याग कर आत्मा को निर्द्वन्द्व और निस्पृह बनाना संथारा का महान् आदर्श है, जैन धर्म का आदर्श है। जब तक जीओ विवेकपूर्वक धर्माराधन करते हुए आनन्द से जीओ और जब मृत्यु आ जाए तो विवेक पूर्वक धर्माराधन में आनन्द से ही मरो, यही पंडित मरण का संदेश है। यही प्रतिक्रमण का सर्वोच्च लक्ष्य है, सर्वोत्तम उपलब्धि है। प्रतिदिन प्रातः, सायं, पक्खी, चौमासी या संवत्सरी का प्रतिक्रमण करते हुए साधक के मनोबल को पुष्ट करते हुए संलेखना संथारा के लिये प्रेरणा मिलती रहती है। ऐसे साधक की भावना होती है कि मैं संलेखना का अवसर आने पर अनशनपूर्वक संलेखना-संथारा करता हुआ शुद्ध बनूँ तथा अन्त में मोक्ष का वरण करूँ। आरम्भ परिग्रह छोड़कर, शुद्ध संयम लूँ धार । करके शुद्ध आलोचना, करूँ संथारा सार ।। मोक्ष की है लगन पूरी, न कोई अन्य आशा है। देह छूटे समाधि से, अंत शुभभाव चाहता हूँ।। -अध्यक्ष, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल -जी २१ शास्त्री नगर, जोधपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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