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|15.17 नवम्बर 2006
| जिनवाणी बैठना दूभर हो जाय तब संलेखना संथारा किया जाता है। असाध्य रोग होने पर भी संलेखना संथारा किया जा सकता है। शरीर पर ममत्व कम होना इसकी प्राथमिकता है। संलेखना आसन्न मृत्यु का स्वागत है। जो मृत्यु से घबराता है, जिसकी जीने की चाह समाप्त नहीं हुई है, विषयों के प्रति राग समाप्त नहीं हुआ है वह संथारा नहीं ले सकता। दूसरे इसकी प्रेरणा दे सकते हैं, लेकिन संथारा साधक की स्वयं की भावना होने पर ही किया जा सकता है, अथवा कराया जा सकता है।
चित्त की सरलता, मन की निर्मलता और आत्मा की पवित्रता लिये हुए जो साधक अहिंसा, संयम और तप की सुगन्ध में अपने जीवन को सुरभित करना चाहते हैं, वे मौत से डरते नहीं, अपितु मौत को गले लगाते हैं, मौत का हँसते-हँसते आलिंगन करते हैं। संलेखना मृत्यु को महोत्सव बनाना है। संलेखना आत्महत्या नहीं
मरण की तलवार हमारे जीवन रूपी गर्दन पर प्रतिपल लटकती रहती है, आपातकालीन मरण भी हो सकता है, आत्महत्या के रूप में भी मरण हो सकता है, किन्तु वह बालमरण है। आत्महत्या पाप ही नहीं, अपितु महापाप है। जल में गिरकर, अग्नि में प्रवेश कर, विष-भक्षण कर, शस्त्र का प्रयोग कर आत्मघात करना आत्महत्या ही है। इसके विपरीत अशन, पान, खादिम, स्वादिम चारों प्रकार के आहार का सर्वथा परित्याग कर जीवन को निर्मल बनाते हुए कषायों को कृश करना संलेखना है। संलेखना पूर्वक संथारा स्वीकार किया जाता है। आदमी आत्महत्या राग या द्वेषवश करता है लेकिन संथारा बिना किसी कामना के समाधिभाव से हँसते-हँसते स्वीकार किया जाता है।
आत्महत्या एकान्त में छिपकर की जाती है। इसमें कर्ता दुःखी एवं शोकग्रस्त होता है। वह होशहवास के बिना, अविवेक अवस्था में आत्महत्या करता है। संलेखना में साधक की भावना शुद्ध, निर्मल व पवित्र होती है। इसमें साधक आत्मलीन होकर शरीर से ममत्व का त्याग करता है एवं सब जीवों से क्षमायाचना करता है। संलेखाना एक व्रत है, जो जीवन के अन्तिम समय में सार्वजनिक रूप से गुरुजनों या बड़े श्रावकश्राविकाओं के श्रीमुख से ग्रहण किया जाता है।
अतः संथारा आत्महत्या नहीं, अपितु आत्म-साधना की एक कनक कसौटी है। अनेक आचार्यों, ऋषि-मुनियों, कृष्ण महाराज की पटरानियों, श्रेणिक की रानियों, श्रावकों ने इस उच्च कोटि की साधना से जीवन को स्वर्ण सदृश निर्मल बनाया तथा सिद्ध गति प्राप्त की थी। संथारा एवं संलेखना के प्रकार
जीवन की सांध्यकालीन आराधना पद्धति को बोलचाल की भाषा में संलेखना एवं संथारा के नामों से पहिचाना जाता है। संलेखना का तात्पर्य है कषायों एवं शरीर को कृश करना तथा संथारा वह अन्तिम बिछौना है जो साधक को तारने वाला होता है। संथारा के दो भेद हैं-१.सागारी संथारा (अल्पकालीन संथारा)- विकट परिस्थिति के उत्पन्न होने पर जब लगे कि गृहीत व्रतों का, आचार नियमों का निर्दोष पालन असंभव है, ऐसी अवस्था में श्रमण या त्यागी पुरुष अपने व्रतों की आलोचना करके प्रतिक्रमण करता है तथा आत्मशुद्धि हेतु शरीर का मोह छोड़कर उपसर्ग व परीषहों को समता भाव से सहता हुआ, मृत्यु से निरपेक्ष रहता हुआ संथारा
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