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15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 189
प्रतिक्रमण की उत्कृष्ट उपलब्धि- संलेखना
श्रीमती सुशीला बोहरा
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बारह व्रतों की निर्मल आराधना करने वाला अपनी मृत्यु के क्षणों को भी साधनामय बना लेता है। अतः प्रतिक्रमण में १२ व्रतों के तत्काल पश्चात् संलेखना के पाठ को स्थान दिया गया है। संथारा और संलेखना के भेदों का प्रतिपादन कर विदुषी लेखिका ने संलेखना-विधि के पाँच सोपानों का वर्णन किया है। इन सोपानों के द्वारा संलेखना का स्वरूप पाठकों के लिए ग्राह्य है। -सम्पादक
संलेखाना संथारा श्रावक के तीन मनोरथ में अन्तिम मनोरथ है। हर साधक की यह अन्तिम इच्छा रहती है कि उसे समाधिमरण प्राप्त हो। इस संलेखनापूर्वक समाधिमरण के पाठ को प्रतिक्रमण के चौथे आवश्यक में स्थान दिया गया है। प्रतिक्रमण करने का यह भी एक उच्च लक्ष्य है।
प्रतिक्रमण जैन साधना का प्राण तत्त्व है। यह साधक जीवन की एक अपूर्व क्रिया है, जिसे साधुसाध्वी आवश्यक रूप से करते हैं तथा श्रावक-श्राविका को भी आवश्यक रूप से करना चाहिये। यह वह पद्धति है जिसमें साधक अपने दोषों की आलोचना कर उनसे मुक्त होने का उपक्रम करता है। कुशल व्यापारी वही कहलाता है जो प्रतिदिन सायंकाल दिनभर के हिसाब को मिलाता है और अपने आय-व्यय को देखकर सोचता है कि कैसे अपव्ययों को रोककर आय को और बढ़ाया जाय। इसी प्रकार साधक भी प्रतिक्रमण के माध्यम से दिनभर की क्रियाओं का हिसाब देखता है कि मैंने अपने नियमों की परिपालना में कितनी दृढ़ता रखी है और कहाँ त्रुटि की है। पुनः त्रुटियों को न करने की प्रतिज्ञा के साथ उन गलतियों की आलोचना वह प्रतिक्रमण में करता है। सोचता है कि मैंने प्रमादवश कौनसे व्रतों का खण्डन किया तथा १८ पापों में से किनका सेवन किया, इस प्रकार भूलों का स्मरण कर वह उनका परिष्कार करने का प्रयास करता है। नित्य प्रतिक्रमण करने का परिणाम मृत्यु के समय में समभावों का रहना है। क्योंकि मृत्यु के क्षणों की भावना को ही सम्पूर्ण जीवन का व भावी जीवन का दर्पण माना गया है। अतः संलेखना- पाठ को प्रतिक्रमण में सम्मिलित कर साधक को प्रतिदिन अन्तिम मनोरथ याद दिलाकर जीवमात्र से क्षमायाचना करके मरण के समय इसे ग्रहण करने के लिए प्रेरणा दी गई है। इस पाठ का स्मरण भी प्रतिक्रमण में १२ व्रतों के तत्काल बाद रखा गया है, वह भी तीन बार जिससे अपने सभी व्रतों का पालन करते समय उसे ध्यान में रहे कि जीवन यात्रा का यह अन्तिम पड़ाव, शाश्वत शांति प्रदान करने वाला है। संलेखना कब किया जाता है
संलेखना जीवन के अन्तिम समय में किया जाता है। जब साधक शारीरिक दृष्टि से इतना अशक्त हो जाय कि चलने-फिरने की क्षमता कम हो जाय, तप-त्याग करने की शारीरिक क्षमता समाप्त हो जाए, उठना
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