SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 188 जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| उपसंहार ___ भगवान् महावीर ने आजीविका की नैतिकता के लिए दंडविधान नहीं बल्कि धर्म का सहारा लिया। उन्होंने हृदय परिवर्तन व सम्यक् भावना पर विशेष जोर दिया है। मानव जीवन इतना तुच्छ या सस्ता नहीं है कि दो पैसे कमाने के लिए दुर्व्यसन और हिंसा को प्रोत्साहन दिया जाये। ऐसे धंधों को कुत्सित कर्म करार दिया गया। उन्होंने केवल यही नहीं कहा कि तुम स्वर्ग में जाकर सुख-शांति प्राप्त करो। उन्होंने तो यह भी कहा है कि तुम जहाँ रहते हो, वहीं पर स्वर्ग का वातावरण बनाओ। यदि तुम इस दुनिया में देवता बन सकते हो, तभी तुम्हें देवलोक मिल सकता है। उनका संदेश व्यावहारिक, प्रायोगिक व अपने जीवन में उतारने योग्य है। इसको सरल भाषा में आम आदमी के लिए इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं - १.अपने कर्तव्य की अवहेलना मत करो, परिश्रम करो, सादगी से रहो। २.जीवन का संचालन इस प्रकार करो कि अपनी करुणा जागृत रहे तथा आसपास का वातावरण स्वर्ग जैसा बनने में मदद मिले। ३.निरर्थक हिंसा का त्याग करो। कुव्यसन पोषक और महारम्भी धंधों की अनुमोदना तक से बचो। ४.आजीविका के व्यापार को अल्पारम्भ व महारम्भ की तुला पर तौल कर हिंसा के अल्पीकरण का विवेक रखो। ५.लोभ और आसक्ति पर लगाम रखकर समभाव से धंधे करो। __ वास्तव में जब महावीर भगवान् के सिद्धांतों के मर्म पर चिंतन करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कि उन्होंने इन सिद्धान्तों का उपदेश इसी युग को लक्ष्य में रख कर दिया हो। यद्यपि धर्म-सिद्धांत का वर्णन शास्त्रों में हुआ है, लेकिन उसका मूर्त व्यावहारिक रूप तो उसके अनुयायियों के आचरण से ही प्रकट होता है। -40, Kamani Centre, Jameshedpur Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy