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||15,17 नवम्बर 2006||
जिनवाणी बचे हुए धंधों में से जहाँ तक हो सके उन धंधों या उद्योगों को चुनना चाहिए, जिनमें प्रत्यक्ष रूप में स्थावर जीवों की विराधना अपेक्षाकृत कम होती हो। यदि अन्य विकल्प उपलब्ध न हो तो वैसे धंधों का अल्पीकरण या सीमाकरण करना चाहिए। किसी भी धंधे को मालिकाना रूप में चलाना या एक इकाई रूप में नौकरी करना, दोनों में भिन्न प्रकार के 'भाव' समझ में आते हैं। इस अपेक्षा से हिंसा की मात्रा इस प्रकार है - स्वामित्व के रूप में धंधा - अ श्रेणी नौकरी के रूप में पेशा - ब श्रेणी अन्य अनुमोदक रूप में - स श्रेणी (कंपनी के शेयर रखना) .
अ
ब
स
(श्रेणी
... चित्र १. हिंसा की सापेक्ष मात्रा भट्टे - जहाँ अग्निकाय की प्रत्यक्ष हिंसा निरंतर हो रही है। जैसे बिजली व आग की भट्टी के उद्योग, ब्लास्ट फर्नेस, धातु गलाना आदि। इनमें हिंसा की मात्रा सबसे अधिक है। इनसे परहेज करना अच्छा है। स्टील प्लांट, पावर हाउस आदि को मालिकाना रूप में चलाना, या उनमें नौकरी करना या उनसे संबंधित वस्तुओं का व्यापार करना, उनके शेयरों को रखना- आदि में सापेक्षिक हिंसा को उपर्युक्त चित्र नं. १ के अनुसार समझना चाहिए। खेती, कंस्ट्रक्सन, खनन आदि- ये भी उपर्युक्त १ ब की तरह कर्मादान हैं। चूंकि इनकी आवश्यकता भी समाज व देश के लिए मूलभूत है, अतः इन धंधों को भी अर्थजा के रूप में अपनाया जा सकता है। लेकिन जैन श्रावक को यह सतत जागरूकता व विवेक रखना चाहिए कि वह इनमें अनर्थजा हिंसा से बचे तथा इनमें हो रही हिंसा का अल्पीकरण करता रहे। जैसे पानी व अग्नि की मात्रा में कमी करना आदि। स्वामित्व, नौकरी आदि में सापेक्ष हिंसा को चित्र १ से समझ लेना चाहिए।
इनसे बेहतर धंधे व उद्योग वे हैं जिनमें प्रत्यक्ष रूप से अग्निकाय व अप्काय ‘पानी' की जीव हिंसा भी न हो। जैसे लोहा या धातु का व्यापार, मशीनें चलाना या इनसे संबंधित वस्तुओं का व्यापार करना।
__ भगवान के संदेश में यह पक्ष उजागर होता है कि अहिंसा में 'भावना' का महत्त्व ज्यादा है। क्रिया तो कर्म-पुद्गलों को आत्मप्रदेशों के पास लाती है। 'भावना' बंध का कारण बनती है। शुद्ध व करुणा भावना रखने से यह ‘बंध' गाढा नहीं होता।
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