SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 184 जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| होंगे। कुत्सित या लोक निन्दित कर्म करना या घातक पदार्थो का व्यापार करना भी महारम्भ में रखा गया है। अल्पारम्भी व्यापारों का चुनाव अल्पारम्भी-अल्पपरिग्रही श्रावक पाप से बचने का अधिकाधिक प्रयास करता है। सांसारिक दायित्वों के निर्वहन के लिए वह व्यापार/व्यवसाय/ उद्योग/पेशा ऐसा चुनने का लक्ष्य रखता है जिससे सांसारिक कार्य करते हुए भी आत्मोत्थान के मार्ग पर चला जा सकता है। जागृति एवं विवेक के साथ इन कार्यों को करने में उसे आर्थिकपूर्ति करते हुए भी अधिक कर्मबंध से बचने में सफलता मिल सकती है। ऐसे कतिपय आजीविका के साधन इस प्रकार हैं - १. पंसारी का व्यापार - अनाज का व्यापार तथा घी, गुड़ आदि पदार्थ का व्यापार भी व्यवहार सम्मत है। २. कपड़े का व्यापार ३. सोने-चाँदी का व्यापार ४. शाकाहारी निरामिष दवाइयों एवं अस्पताल का व्यापार-धंधा ५. डॉक्टर, चार्टर्ड एकाउन्टेट, टेक्स कंसलटेन्ट (सेवा प्रदान करने वाला) आदि प्रोफेशन तथा शिक्षा व प्रशिक्षण का कार्य। उद्योगजा-हिंसा में विवेक ___उद्योगजा हिंसा में विवेक तथा व्यापार चुनाव के साधारण नियम हर गृहस्थ को अपने व्यापार में जागरूकता रखने के लिए जानना व समझना बहुत जरूरी है। उद्योग व व्यापार का रास्ता चुनने के पूर्व युवक या श्रावक को सर्वप्रथम हिंसा व अहिंसा के उपर्युक्त आयाम का सापेक्षिक विश्लेषण करके उसे भलीभाँति समझ लेना चाहिए। इसमें साधु महाराज या ज्ञानी श्रावक से मार्गदर्शन भी मिल सकता है। उपलब्ध संभावित उद्योगों या व्यापार में चुनाव के लिए यह विवेक रखे कि अपनी योग्यता व रुचि के अनुसार ऐसा उद्योग व व्यापार करे, जिसमें अपेक्षाकृत कम हिंसा होती हो। मार्गदर्शन उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर (अ) निम्न ३ प्रकार के धन्धे सर्वथा त्याज्य हैं(१)जिनमें प्रत्यक्ष रूप से त्रसकाय जीवों की हिंसा होती हो। (जैसे बूचड़खाने, रेशम बनाना आदि) (२) जिन धंधों से उपर्युक्त कार्यों की अनुमोदना होती हो या प्रोत्साहन मिलता हो। जैसे अनजाने काम के लिए जानवर बेचना या रेशम का या माँस का व्यापार करना। (३) कुव्यसन वाले पदार्थों या सामग्री का व्यापार करना तथा मदिरा बनाना व बेचना आदि कार्यों का त्याग करना। (ब) अन्य धंधे करने में श्रावक की भूमिका का निर्वहन निम्न रूप में हो सकता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy