________________
15, 17 नवम्बर 2006
जिनवाणी
३. निम्नोक्त वस्तुओं का व्यापार करने वाले 'वाणिज्य कर्मादान' के महारम्भी बनते हैं - दंतवाणिज्जे- त्रसकायिक जीवों के अवयवों का व्यापार करने, जैसे दाँत, केश, चमड़ा, शंख आदि के क्रय-विक्रय से दंतवाणिज्जे दोष का भागी होता है।
लक्खवाणिज्जे- जिसमें त्रसकाय जीवों की बहुत विराधना हो, वैसे पदार्थों का व्यापार करना । जैसे- लाख, चपड़ी, रेशम, सड़ा अनाज आदि के व्यापार करने में लक्खवाणिज्जे दोष लगता है।
केसवाणिज्जे- केशवाले जीव जैसे- गाय, भैंस, भेड़, पक्षी, घोड़ा आदि के व्यापार से केसवाणिज्जे दोष लगता है।
रसवाणिज्जे- मदिरा, पेट्रोल, शहद आदि रसवाले या प्रवाही पदार्थ का व्यापार करने में व्यक्ति रसवाणिज्जे दोष का भागी बनता है । रस-पदार्थ के उत्पादन उद्योग में कार्य करने वालों को 'कर्मादान' लगता है। विस - वाणिज्जे- संखिया आदि विष, तलवार, पिस्तौल आदि अस्त्र-शस्त्र, टिड्डी, मच्छर मारने की दवा, टिकिया आदि के व्यापार में विसवाणिज्जे दोष लगता है।
183
उपर्युक्त ५ प्रकार के 'व्यापार- कर्मादान' में से ४ कर्मादानों का जैनी श्रावक थोड़े से विवेक व संयम से परहेज कर सकते हैं। केवल चौथे 'रस वाणिज्जे' में मदिरा / शहद जैसे महाविगयी पदार्थों के व्यापार को नहीं करना ही उचित है।
४. निम्नोक्त ३ प्रकार के 'ठेकों' का काम करने से श्रावक लोग परहेज कर सकते है .
दवग्गिदावणया- खेत, जंगल, घास आदि को अग्नि से जलाकर साफ करने का ठेका । यह अग्निकाय से युक्त होने पर भी अंगार कर्म से भिन्न प्रकार का कर्मादान माना गया है।
सरदहतलायसोसणया - तालाब, झील आदि को सुखाकर अप्काय का महारम्भ तथा उसके आश्रित जलचरकायिक जीवों की विराधना का काम नहीं करना ही श्रावक के लिए उचित है।
जैसे फाउण्टेन, एक्वेरियम बनाने का काम । तालाब आदि को सुखाकर खेती लायक बनाना। नहरें आदि बनाकर सिंचाई परियोजना का ठेका भी इसी अन्तर्गत आता है। आधुनिक जमाने में ऐसे ठेकों की बहुलता है। नहर आदि की परियोजनाओं का ठेका भी इसी के अन्तर्गत आता है। आधुनिक जमाने में ऐसे ठेकों की बहुलता है। नहर आदि परियोजनाओं से जैनी लोग काफी जुड़े हुए हैं।
असईजणपोसणया - शिकारी कुत्ते, वेश्यावृत्ति आदि का पोषण करना आदि कार्य श्रावक के लिए त्याज्य
हैं।
उपर्युक्त १५ कर्मादान का विश्लेषण समझने से यह पता चलता है कि देश - विरत श्रावक के लिए उदरपूर्ति के ऐसे अनेक साधन हो सकते हैं, जो अल्पतर पाप वाले हैं। अल्पारम्भ से जब जीवन निर्वाह हो सकता है, तब अनन्त जीवों की घात कर आत्मा को गुरुकर्मी बनाना विवेकशील श्रावक के लिए उचित नहीं है । भगवान् महावीर ने विचार को सम्यक् बनाने पर बल दिया । विचार-शुद्धि होने से आचार आसानी से शुद्ध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org