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15, 17 नवम्बर 2006
जिनवाणी सावधानी - अपने कार्य अथवा व्यापार में यह विवेक भी रखें कि हमारी किसी भी वृत्ति से, कार्यस्थल से अन्य लोगों को काय या स्थावर जीवों की महाहिंसा करने का हमारा प्रोत्साहन या अनुमोदन न दिखाई दे । यदि दिखता है, तो उस कार्य से परहेज रखें। जैसे माँसाहारी होटल या रेस्ट्रॉ में बैठकर शाकाहारी भोजन करना। बार / शराबखाने में बैठकर शीतल पेय पीना । अनजाने में कोई दर्शक यह समझने न लगे कि हम माँसाहार या उससे परहेज करना उचित नहीं समझते या शराब को पीना अनुचित नहीं समझते । (स) जीवन-यापन के धंधों में भी आंतरिक तप -
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जैन दर्शन बताता है कि हम अपने जीवन-यापन के धंधे करते हुए भी किस प्रकार सरलता से विनय, तप व पश्चात्ताप जैसे बड़े आंतरिक तप की साधना कर सकते हैं। श्रावक जागरूक रहते हुए यह भावना रखे(१) कि मैं अपने घोर हिंसा वाले धंधे में हिंसा का अल्पीकरण करूँ तथा निकट भविष्य में योजनाबद्ध तरीके से इसका सीमाकरण करूँ या निवृत्त होऊँ ।
(२) कि यह धंधा मेरी विवशता है। आत्मग्लानि व करुणा का भाव जागृत रहे ।
(३) कि मेरे व्यवहार व भाषा से लोगों को स्पष्ट दिखाई दे कि मैं 'जीव-हिंसा' कम करने या टालने में सतत प्रयत्नशील हूँ। अन्य लोगों को भी जागरूक रहने का संदेश व प्रोत्साहन मुझसे मिलता रहे।
मन में ऐसी भावना रखने से गृहस्थ अनायास उच्च तप का साधक बन जाता है। आधुनिक विशेष धन्धे- अब कुछ धंधों का विशेष विश्लेषण किया जा रहा है। (१) गिरवी - इसमें केवल सामान रखकर बदले में ब्याज पर पैसा दिया जाता है।
उद्देश्य - ग्राहक को अपनी रोजमर्रा की वस्तुओं के लिए या कभी- कभी व्यापार के लिए पैसा दिया जाने का उद्देश्य है। ग्राहक की नीयत के बारे में कोई पूछताछ नहीं होती है।
कर्मबन्ध की विवक्षा १. अपना अर्थ उपार्जन बिना ज्यादा आरम्भ / समारम्भ के हो जाता है। ग्राहक हो सकता है, शराब पीयेगा, माँस खरीदेगा। लेकिन वैसी तो करुणा-दान में भी संभावना रहती है। अतः यह धंधा कम हिंसा का माना जा सकता है।
(२) फायनेन्स उपकरण, वाहन खरीदने के लिए सूद पर रुपया देना ।
उद्देश्य - ग्राहक अपने अर्थोपार्जन के लिए वाहन या विलासिता के लिए घर सामान खरीदने के लिए पैसा लेता है।
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कर्मबंध की विवक्षा इन उपकरणों का उपयोग आगे हिंसा का निमित्त बनता है, ऐसी जानकारी तो रहती है। अतः परोक्ष रूप में ही हिंसा की अनुमोदना होती है। प्रत्यक्ष में कोई निर्देश व सीधा संबंध नहीं रहता है । लेकिन इस हिंसा की मात्रा का विवेक समझा जा सकता है। 'किसी के जीविकोपार्जन' के लिए पैसा देते समय सोचना है कि वह धंधा अधिक हिंसा का न हो या वह कुव्यसन का पोषण न करता हो, यह ध्यान
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