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जिनवाणी
15, 17 नवम्बर 2006
अविरति एवं प्रवृत्ति
अविरति में कोई परिमाण नहीं, कोई व्रत नहीं होता है। अविरति क्रिया निरंतर होती रहती है, जो कर्म - बंधन या हिंसा का अनजाने में ही प्रमुख कारण बनती है। अतः गृहस्थ को परिवार व धंधों में, तथा गमनागमन व उपभोग- परिभोग में हमेशा परिमाण या सीमा निर्धारित करनी चाहिए। इससे अविरति कर्म की यानी अनर्थदण्ड की हिंसा से सहज में ही निवृत्ति हो जाती है।
प्रवृत्ति क्रिया सोच-समझकर व संकल्प से की जाती है। प्रश्न उठता है कि श्रावक को इसमें विवेक कैसे रखना चाहिए ? श्रावकों के नियमों के आधार पर इसमें विवेक रखा जाता है। श्रावक के दो प्रकार कहे गये हैं। एक सामान्य दर्जे का श्रद्धालु गृहस्थ और दूसरा विशिष्ट श्रावक ।
अर्थोपार्जन के लिए सामान्य श्रावक को भी धंधे व शिल्प का चुनाव करते वक्त यह विवेक रखना चाहिए कि कोई महारम्भी, त्रसकायी हिंसा या पंचेन्द्रिय-हिंसा वाला कर्म न हो। फिर उसके परिपालन में अल्पीकरण व मर्यादा का प्रयास रहे ।
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विशिष्ट श्रावक तो अर्थोपार्जन की भी मर्यादा रखता है। अपनी आवश्यकताओं व खर्च का इतना अल्पीकरण कर लेता है कि अर्थोपार्जन में वह लोभ से बच सके। उसका चिंतन इस प्रकार चलता है कि उसका अर्थोपार्जन, पुण्य के उदय से, आसानी से हो रहा है। लेकिन इसके कारण उसमें अहंकार व कषाय भाव पैदा न हो, इसके लिए वह निरंतर जागरूक बना रहे। आजीविकार्थ वर्णव्यवस्था के अनुरूप कर्म
प्राचीनकाल की सामाजिक-व्यवस्था में धंधे और कर्म समाज के विभिन्न वर्गों में बंट गये थे । इसमें वर्ण, कुल व जाति का ध्यान रखा जाता था । उसी के अनुरूप आजीविका हेतु कर्म की व्यवस्था भी की गई थी । विशेष कर्म, जो समाज के लिए आवश्यक थे, विशेष वर्गों के सुपुर्द कर दिये गये थे। जिससे वे उसे अपना धर्म समझकर करते थे। यह उनकी अर्थजा हिंसा थी। फिर भी उसमें वे अपना विवेक एवं अपनी जागरूकता बनाये रखते थे । वे श्रावक भी पूर्ण व्रती श्रावक की श्रेणी में गिने जाते थे। यह जैन दर्शन का सबल व्यावहारिक पक्ष था। गृहस्थी की सामान्य आवश्यकता, जैसे दालें बनाना, मिट्टी के घड़े बनाना, खेती करना आदि भी वर्ग विशेष के ग्राह्य धंधे थे । उनको 'कर्मादान' की श्रेणी में खड़े करके, त्याज्य धंधे या घृणित धंधे नहीं बना दिये गये ।
उपासक दशांग सूत्र में वर्णन आता है कि सकडाल श्रावक के बर्तनों की ५०० दुकानें थीं। वह कुम्हार का काम करते हुए भी अच्छा श्रावक गिना गया। जबकि बर्तन बनाने के भट्टों का धंधा पहला कर्मादान 'इंगालकम्मे' बताया गया है।
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दंक नामक एक प्रजापति (कुम्हार) भी अच्छा श्रावक हुआ था, जिसने सुदर्शन साध्वीजी की श्रद्धा को अपनी बुद्धि से स्थिर कर दिया था। वह मिट्टी के बर्तन बनाता और बेचता था, लेकिन वह संतोषी था
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