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| जिनवाणी
|| 15,17 नवम्बर 2006 मनोरंजन के लिए, स्वाद के लिए, स्वामित्व के अहंकार की पुष्टि के लिए जो हिंसा होती है, वह लोभ आदि कषाय के वश होती है। अतः प्रगाढ कर्म-बंध का कारण बनती है।
जो हिंसा जीवन-यापन के लिए आवश्यक नहीं है, उसे अनर्थ-हिंसा की श्रेणी में रखा गया है। इसके त्याग से या विवेक से, एक साधक आसानी से अहिंसा के मार्ग पर बहुत प्रगति कर सकता है। जीवन यापन- जीवन-यापन के लिए गृहस्थ कैसा व्यापार करें, कैसा कर्म करे, इसका खुलासा पाने के लिए मुनि मेघकुमार ने भगवान् महावीर से पूछा, “हे भगवन्! कृषि, वाणिज्य, रक्षा, शिल्प आदि विभिन्न प्रकार के कर्म करता हुआ, एक गृहस्थ कैसे सत्प्रवृत्ति कर सकता है।"
भगवान् ने फरमाया, “मैंने हिंसा के २ प्रकार बतलाये हैं-अर्थजा और अनर्थजा। गृहस्थ अनर्थजा यानी अनावश्यक हिंसा का जितनी मात्रा में त्याग कर सकता है, उतनी मात्रा में उसकी प्रवृत्ति सत् हो जाती है। भगवान ने ऐसी सुन्दर आचार नीति का उपदेश दिया है कि जीवन के लिए कोई आवश्यक कार्य भी न रुके
और आत्मा बंध से लिप्त भी न हो। १. अर्थजा हिंसा - अपने लिए, परिवार के लिए, समाज व राज्य के लिए जो हिंसा की जाती है, वह अर्थजा की श्रेणी में आती है। चूंकि एक-दूसरे के लिए परस्पर सहयोग करना समाज का आधारभूत तत्त्व है, अतः समाज के लिए जो हिंसा की जाती है, उसे भी अर्थजा हिंसा कहते हैं। युद्ध के समय स्वयं या देश रक्षा के लिए की गई हिंसा भी इस श्रेणी में आती है। इसमें प्रधान साध्य है 'समभाव' । यद्यपि कोई भी हिंसा, कहीं पर भी निर्दोष नहीं होती है (युद्ध में भी), परन्तु उसकी कर्म-लेप-शक्ति में यानी प्रगाढता में अन्तर होता है। आसक्ति का लेप गाढा और अनासक्त कर्म का लेप मृदु/हल्का होता है। अर्थजा हिंसा करते हुए भी जो व्यक्ति प्रबल आसक्ति या ममत्व नहीं रखता, वह चिकने कर्म-पुद्गलों से लिप्त नहीं होता है। हिंसा चाहे हमें विवशता में करनी पड़े, लेकिन उसके प्रति आत्मग्लानि व हिंसित के प्रति करुणा बनी रहे, ऐसा प्रयास रहना
चाहिए।
यानी समाज द्वारा सम्मत कर्म करता हुआ व्यक्ति यदि मन को अनासक्त रखे तो वह दृढ लेप से लिप्त नहीं होता है। कहा है -
सम्यक् दृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल,
अन्तर सुंन्यारो रहे, ज्यूं धाय खिलावे बाल। २. संकल्पजा हिंसा- मन के संकल्पों से जानबूझ कर की गई भाव हिंसा भी संकल्पजा हिंसा है। यह गृहस्थ, साधु सभी के लिए त्याज्य है। क्योंकि निश्चय या सैद्धांतिक दृष्टि से हिंसा भावों में ही है, बाहर में हिंसा का कर्मबंध से उतना सम्बन्ध नहीं है। इसमें महत्त्वपूर्ण है- व्यक्ति का संकल्प। जैसे डाक्टर के हाथ से इलाज के दौरान यदि मरीज मर भी जाता है तो डॉक्टर संकल्पी हिंसा का दोषी नहीं है। लेकिन एक डाकू की गोली से मारा गया सेठ, उसके लिए प्रगाढ कर्म-बंधन का हेतु है। क्योंकि डाकू की भावना उसे मारने की थी।
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