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________________ |15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 7 कर्मादान जैन गृहस्थ के लिए अणुव्रत रूप धर्म का विधान किया गया है। उसके १२ व्रतों में ५ मूल गुण रूप अणुव्रत हैं। शेष ७ व्रत-प्रत्याख्यान उत्तरगुण रूप हैं। सातवें उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के अनुसार १५ प्रकार के कर्मादान' यानी व्यापार-धंधे नहीं करने का उपदेश है। श्रावक उनका त्याग करता है। यह व्रत एक गुण-व्रत है, जिसका उद्देश्य पहले ५ मूलव्रतों की रक्षा करना है। कर्मादान क्या है- जिन धन्धों में व उ द्योगों में महाहिंसा होती है तथा ज्ञानावरणीय आदि कर्म का विशेष बंध होता है, उन्हें कर्मादान कहते हैं। ये सब घोर-हिंसा के हेतु हैं। चूंकि जीवन-यापन के लिए व्यापार या उद्योग करना भी आवश्यक हैं, तब प्रश्न उठता है कि जैन-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में इनके चयन व संचालन के लिए क्या सिद्धांत अपनाने चाहिए? चूंकि हर धंधे में पाप-क्रिया है, हिंसा है, अतः सीधा जवाब यह हो सकता है कि कोई भी धंधा मत करो। लेकिन यह व्यावहारिक नहीं है। इसके लिए भगवान् महावीर ने सशक्त, व्यावहारिक व प्रायोगिक संदेश दिया है कि गृहस्थ लोग आध्यात्म को अपना कर कैसे व्यापार करें, कैसे उद्योग करें। आज के परिप्रेक्ष्य में भी यह संदेश उतना ही प्रासंगिक है। उतना ही प्रगतिशील है जितना २६०० वर्ष पूर्व था। हिंसा का विश्लेषण- व्यावहारिक जीवन की सफलता के लिए हिंसा, अहिंसा का विश्लेषण सम्यक् प्रकार से समझना आवश्यक है। हिंसा के तीन रूप बताये गये हैं(१) जीवन जीते हुए हिंसा का हो जाना- जीवन जीते हुए प्रतिक्षण अनेकानेक जीवों की हिंसा हो जाती है। जैसे श्वास लेने में, उठने-बैठने में, पाचन-क्रिया में हिंसा होती है। किन्तु यह हिंसा, हिंसा की कोटि में नहीं आती है। इसमें न कोई संकल्प है और न ही इसे रोकने की शक्ति /सामर्थ्य है। (२) जीवन की रक्षा करते हुए हिंसा का होना (आरम्भजा व प्रतिरक्षात्मक हिंसा)- द्वितीय श्रेणी की हिंसा में जीवन-यापन और संरक्षण का संकल्प है, हिंसा का नहीं। यद्यपि इसमें हिंसा है, किन्तु गृहस्थ-साधक के लिए यह हिंसा अपरिहार्य है। (३) हिंसा के उद्देश्य से हिंसा करना (संकल्पजा)- हिंसा का जो तृतीय रूप है, वह निकृष्टतम है। इसमें हिंसा विवेकरहित एवं प्रमत्त दशा में होती है। अशुभ भाव या मन की विषमता को ही आचार्य उमास्वाति ने प्रमत्त योग कहा है। इस योग से होने वाली हिंसा ही दोष रूप है, तथा प्रगाढ कर्म-बंधन करने वाली है। अतः प्रमत्त-योग पूर्वक हिंसा करने का सर्वथा निषेध किया गया है। शेष हिंसा, जैसे- आरम्भजा, उद्योगजा या विरोधजा हिंसा का गृहस्थ के लिए निषेध नहीं है। अपने विवेक को जागृत रखना है। हालांकि विवेकपूर्वक जीवन की आवश्यक क्रियाएँ करते हुए भी हिंसा हो जाती है। लेकिन साधक का संकल्प, हिंसा का नहीं रहता है। वास्तव में यतनापूर्वक क्रिया करने को ही धर्म कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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