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श्रावक और कर्मादान
डॉ. जीवराज जैन
हर गृहस्थ के लिए यह अति आवश्यक है कि वह अपने धंधे, शिल्प या अन्य जीविकोपार्जन के लिए कर रहे कार्य के बारे में पूर्ण जानकारी रखे, जिससे वह अनावश्यक हिंसा व प्रगाढ कर्मबन्धन से बच सके। उसका आचरण व चित्त शुद्ध रह सके। इसके लिए आधुनिक परिप्रेक्ष्य में 'आसक्ति', 'भावना' और 'अहिंसा' के संबंध को ठीक से समझना आवश्यक है।
सावद्य-निरवद्य विवेक :
है.
आवश्यक सूत्र में सातवें व्रत के साथ पन्द्रह कर्मादान को जानने योग्य बताया है। इसी बात को लक्ष्य में रखते हुए लेखक ने अपने मौलिक चिन्तन को शब्द की ज्योति से दीप्त किया है । श्रावक के जीवन में इसकी आवश्यकता के सभी पक्षों का सरल और ग्राह्य प्रस्तुतीकरण के साथ लेख में आधुनिक धंधों के परिप्रेक्ष्य में भी चर्चा की गई है । सिद्धान्तों की व्यवहारिकता का प्रतिपादन होने से लेख की उपयोगिता सिद्ध है। सम्पादक
पदार्थों का सर्वथा परित्याग करना देहधारियों के लिए संभव नहीं होता है। लेकिन पदार्थों के भोग में वे आसक्ति का, ममत्व का तो सर्वथा परित्याग कर सकते हैं ।
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15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी,
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अनगार साधु यानी श्रमण लोग विवेकपूर्वक सांसारिक प्रवृत्तियों का त्याग करके, विरति धर्म स्वीकार करते हैं। लेकिन श्रावक को तो गृहस्थी के कर्म करने ही पड़ते हैं । किन्तु वह घर-गृहस्थी में रहता हुआ भी धर्म की आराधना कर सकता है। इसके लिए बताया गया है कि श्रावक को पदार्थ भोग में परिमाण व उससे विरति करनी चाहिए। उनके भोग में अपनी आसक्ति को क्षीण करते रहना चाहिए। जो व्यक्ति केवल पदार्थों का त्याग करता है, किन्तु अपनी वासना को / आसक्तियों को कम नहीं करता है, वह व्यवहार दृष्टि से भले ही त्यागी नजर आता हो, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। त्यागी वही है जो आसक्ति का त्याग करता
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गृहस्थ का सत्कर्म
जब तक मनुष्य का शरीर विद्यमान रहता है, तब तक उससे निरन्तर कर्म होता ही रहता है। कर्म दो प्रकार के होते हैं- सत् और असत् अथवा शुभ और अशुभ । सत्कर्म की प्रवृत्ति और अशुभ कर्म की निवृति को धर्म बताया गया है। जो गृहस्थ जितना सत्कर्म करता है तथा अपने आचरण में जितनी समता रखता है यानी जितनी आसक्ति (ममत्व) क्षीण करता है, उतना ही वह धर्म का अधिकारी बनता है।
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