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________________ 170 जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 ही कसूर था या उनका भी? वह अधिक पाप मेरे को ही हुआ या उनको भी ? मैं बच्चा था, इससे मुझमें विवेक नहीं था और न उन्होंने कहा था कि कितनी लाना। इस तरह न उन्होंने विवेक दिया और न बच्चा होने के कारण मुझमें विवेक था। इस तरह अधिक पाप का कारण अविवेक रहा। यदि विवेक होता तो वह अधिक पाप क्यों होता? इसलिये पत्ता तोड़ने का कार्य करने के बजाय कराने में अधिक पाप हुआ, क्योंकि यदि वे अपने हाथ से पत्ते तोड़कर लाते तो जितनी आवश्यकता थी उतने ही लाते, अधिक नहीं । विवेक के अभाव में, अल्प पाप होने की जगह महापाप होने के और भी बहुत से उदाहरण दिये जा सकते हैं। कोई सेठ श्रावक जंगल गये। वहाँ नौकर से पानी भर कर लाने को कहा । वह हरी वनस्पति फूलन आदि कुचलता हुआ दौड़ गया और लौटा मांज कर जलाशय में धोकर जैसा तैसा छना-अनछना पानी भर लाया। अब यह अधिक पाप किसको हुआ ? क्या यह पाप करने वाले को ही हुआ, कराने वाले को नहीं ? यदि सेठजी स्वयं पानी भरने जाते तो और विवेक से काम लेते तो कितना पाप टाल सकते थे ? वह नौकर सेठ का भेजा हुआ गया था इसलिये क्या सेठ को उसका पाप नहीं लगा ? इस तरह करने की अपेक्षा दूसरे से कराने में ज्यादा पाप हो गया। जैनधर्म के प्रवर्तक क्षत्रिय थे और यह धर्म इतना व्यापक है कि प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति इसका पालन कर सकता है। इस धर्म को राज्य करने वाले शासक भी पाल सकते हैं। उदायन राजा सोलह देश का राज्य करते थे फिर भी वे अल्पारंभी कहे गये हैं । इतना बड़ा राज्य संभालते हुए भी वे अल्पारंभी रहे, इसका कारण क्या है? इसका कारण यही है कि वे श्रावक होने के कारण विवेक से काम लेते थे । भगवान् ने विवेक में धर्म बताया है। यदि ऐसा न होता तो यह धर्म केवल बनियों का ही रह जाता, क्षत्रियों के पालन योग्य न रहता । विवेकपूर्वक कर्त्तव्य पालन करता हुआ राजा भी, अल्पारंभी हो सकता है। इस तरह कभी करने में ज्यादा पाप हो जाता है, कभी कराने में ज्यादा पाप हो जाता है और कभी अनुमोदना में ज्यादा पाप हो जाता है। विवेक न रखने से, करने - कराने में भी उतना पाप नहीं होता जितना अनुमोदना से हो जाता है। यह बात निम्न उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है मान लीजिये एक राजा जैन है। उसके सामने एक ऐसा अपराधी लाया गया जिसने फाँसी की सजा के योग्य अपराध किया था। वह राजा सोचने लगा कि मैं चाहता हूँ कि यह अपराधी न मारा जाए, परन्तु यदि इसके अपराध की भयंकरता को देखते हुए फाँसी की सजा न दूँगा तो न्याय का उल्लंघन होगा। इस तरह उसने न्याय के रक्षण हेतु बड़े संकोच भाव से उस अपराधी को फाँसी की सजा सुनाई। फाँसी लगाने वाला उस अपराधी को फाँसी के स्थान पर ले गया। वह भी अपने मन में सोचता था कि यह फाँसी लगाने का काम बुरा है। मैं नहीं चाहता कि किसी को फाँसी लगाऊँ, परन्तु राज्य की नौकरी करता हूँ, अतः उसकी आज्ञा मानना मेरा कर्त्तव्य है। राजा भी न्याय से बँधा हुआ है, मैं भी कर्त्तव्य से बँधा हुआ हूँ, अतएव विवश होकर यह काम करना पड़ता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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