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15,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी
169] रखने से अनुमोदन का पाप लगता ही है। इस बात को लक्ष्य में रखकर गृहस्थ दो करण तीन योग से त्याग करता है। इस प्रकार का त्याग करने से गृहस्थ के संसार-व्यवहार में बाधा नहीं आती।।
___ प्राथमिकता की दृष्टि से श्रावक पहले हिंसादि पाप स्वयं करने का त्याग करता है, फिर कराने का त्याग करता है और अनुमोदन करने की छूट रखता है। पाप का आचरण स्वयं करने की स्थिति में संक्लिष्टता की संभावना विशेष हो सकती है। दूसरों के द्वारा हिंसादि कार्य कराने में परिणामों में उतनी अधिक तीव्रता या संक्लिष्टता की संभावना प्रायः नहीं रहती है। अनुमोदन में यह तीव्रता और कम हो जाती है। इस दृष्टि से शास्त्रकारों ने प्राथमिकता का उक्त क्रम निर्धारित किया है। परन्तु यह कोई सार्वत्रिक नियम नहीं है। अल्पपाप या महापाप का दारोमदार करने-कराने या अनुमोदन पर उतना निर्भर नहीं है जितना विवेक या अविवेक पर निर्भर है। जहाँ विवेक है वहाँ अल्प पाप है और जहाँ विवेक नहीं है वहाँ अधिक पाप है। अल्पपाप और अधिक पाप विवेक-अविवेक पर अवलम्बित है।
___जैन जगत् के महान् ज्योतिर्धर स्वर्गीय श्री जवाहराचार्य के समय में समाज में यह प्रश्न उठा था कि हलवाई के यहाँ से सीधी चीजें लाकर खाने में कम पाप है या घर में बनाकर खाने में कम पाप है? आरंभ करने में ज्यादा पाप है या कराने में अधिक पाप है या अनुमोदन में अधिक पाप है? स्वर्गीय आचार्य श्री ने इस संबंध में प्रतिपादित किया कि इस विषय में कोई एकान्त पक्ष नही हो सकता। कभी करने में ज्यादा पाप हो जाता है, कभी कराने में ज्यादा पाप हो जाता है और कभी अनुमोदन में ज्यादा पाप हो जाता है। अल्प पाप या महापाप का आधार विवेक-अविवेक और भावनाओं पर आधारित है।
स्व. श्री जवाहराचार्य ने इस विषय को स्पष्ट करते हुए प्रतिपादित किया कि “जो काम महारम्भ से होता है वही काम विवेक होने पर अल्पारंभ से भी हो सकता है, और जो काम अल्पारंभ से हो सकता है वही अविवेक के कारण महारम्भ का बन जाता है।" इस विषय में स्व. आचार्यश्री ने अपनी गृहस्थावस्था के एक प्रसंग का उल्लेख इस प्रकार किया
__“जब मेरी आयु करीब दस-बारह वर्ष की थी उस समय की यह घटना है। मेरा गाँव मक्की प्रधान क्षेत्र था। जब अच्छी मक्की की फसल होती तो उस क्षेत्र के लोग प्रसन्नता प्रकट करते थे। गोठ-गुगरियाँ करते थे। इसी संदर्भ में गाँव के प्रतिष्ठित लोगों ने मिलकर गोठ का आयोजन किया। मक्की के भुजिये बनाने का विचार किया। साथ ही भंग के भुजिये भी बनाने की बात हो गई। मेरे मामाजी ने मुझसे कहा कि बाड़े में भांग के पौधे खड़े हैं, उनमें से भंग की पत्तियाँ तोड़ लाओ। उस समय भंग के विषय में आज की तरह का कायदा न था। इसलिये जगह-जगह उसके पौधे होते थे। मेरे मामाजी प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, राज्य में भी उनका सम्मान था और वे धर्म का भी विचार रखते थे। उनके कहने पर मैं दौड़ गया और खोला (गोद) भर कर करीब सेर भर भंग तोड़ लाया। वे मुझसे कहने लगे कि “इतनी भंग क्यों तोड़ लाया? थोड़ी सी भंग की जरूरत थी।" इस तरह थोड़ी-सी भंग की जगह बहुत भंग लाने के कारण वे मुझे उलाहना देने लगे। लेकिन वास्तव में मेरा
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