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________________ |15, 17 नवम्बर 2006 कालिक आधार पर प्रतिक्रमण के भेद मूलाचार के रचनाकार लिखते हैं जिनवाणी पडिकमणं देवसियं रादिय इरियापधं च बोधव्वं । पक्खिय चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तमट्ठे च ॥ - मूलाचार ६१५ अर्थात् प्रतिक्रमण दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ इन सात प्रकार का जानना चाहिए। 135 १. दैवसिक - सम्पूर्ण दिन में हुए अतिचारों की आलोचना प्रत्येक संध्या में करना । २. रात्रिक - सम्पूर्ण रात्रि में हुए अतिचारों की प्रतिदिन प्रातः आलोचना करना । ३. ईर्यापथ प्रतिक्रमण - आहार, गुरुवन्दन, शौच आदि जाते समय षट्काय के जीवों के प्रति हुए अतिचारों से निवृत्ति । ४. पाक्षिक- सम्पूर्ण पक्ष में लगे हुए दोषों की निवृत्ति के लिए प्रत्येक चतुर्दशी या अमावस्या अथवा पूर्णिमा को उनकी आलोचना करना । ५. चातुर्मासिक- चार माह में हुए अतिचारों की निवृत्ति हेतु कार्तिक, फाल्गुन एवं आषाढ़ माह की चतुर्दशी या पूर्णिमा को विचारपूर्वक आलोचना करना । ६. सांवत्सरिक - वर्ष भर के अतिचारों की निवृत्ति हेतु प्रत्येक वर्ष आषाढ़ माह के अन्त में चतुर्दशी या पूर्णिमा के दिन चिन्तनपूर्वक आलोचना करना । ७. औत्तमार्थ - यावज्जीवन चार प्रकार के आहारों से निवृत्त होना' औत्तमार्थ प्रतिक्रमण' है । यह संलेखना - संथारा से सम्बद्ध प्रतिक्रमण है, जिसके अन्तर्गत जीवनपर्यन्त सभी प्रकार के अतिचारों का भी प्रतिक्रमण हो जाता है। उपर्युक्त सात भेदों के अतिरिक्त मूलाचार के संक्षेप प्रत्याख्यान-संस्तरस्तव नामक तृतीय अधिकार में आराधना (मरण समाधि) काल के तीन प्रतिक्रमणों का भी उल्लेख हुआ है- १. सर्वातिचार प्रतिक्रमण २. त्रिविध आहार-त्याग प्रतिक्रमण ३. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण । मूलाचार वृत्ति में आचार्य वसुनन्दि ने आराधनाशास्त्र के आधार पर योग, इन्द्रिय, शरीर और कषाय इन चार प्रतिक्रमणों का भी उल्लेख किया है। प्रतिक्रमण की विधि Jain Education International सर्वप्रथम विनयकर्म करके शरीर, आसन आदि का पिच्छिका से प्रमार्जन तथा नेत्र से शुद्धि करनी चाहिए। तदनन्तर अंजलि जोड़कर ऋद्धि आदि गौरव तथा जातिमद आदि सभी तरह के मद छोड़कर व्रतों में लगे हुए अतिचारों को नित्य प्रति दूर करना चाहिए। आज नहीं, दूसरे या तीसरे दिन अपराधों को कहूँगा, इत्यादि रूप में टालते हुए कालक्षेप करना ठीक नहीं, अतः जैसे-जैसे अतिचार उत्पन्न हों, उन्हें अनुक्रम से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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