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________________ 136 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी आलोचना, निन्दा और गर्हा पूर्वक विनष्ट करके पुनः उन अपराधों को नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण करते हैं, उसी तरह असंयम, क्रोध आदि कषायों एवं अशुभ योगों का प्रतिक्रमण करना चाहिए। इस तरह दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण के नियमों को पूर्ण कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान करना चाहिए। आलोचना - भक्ति करते समय कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण-भक्ति करने में कायोत्सर्ग, वीर भक्ति में कायोत्सर्ग और चतुर्विंशति तीर्थंकर - भक्ति में कायोत्सर्ग - प्रतिक्रमण काल में ये चार कृतिकर्म करने का विधान है । प्रतिक्रमण की परम्परा चौबीस तीर्थंकरों के संघ में प्रतिक्रमण में विधान की परम्परा का मूलाचारकार ने उल्लेख करते हुए लिखा है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों को अतिचार लगे या न लगे, किन्तु दोषों की विशुद्धि के लिए समय पर प्रतिक्रमण करने का उपदेश दिया है। मध्य के बाईस तीर्थंकरों अर्थात् द्वितीय अजितनाथ से लेकर तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण करने का . उपदेश दिया और कहा कि- जिस व्रत में स्वयं या अन्य साधु को अतिचार हो उस दोष के विनाशार्थ उसे प्रतिक्रमण करना चाहिए, क्योंकि मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़ बुद्धिशाली, एकाग्रमन वाले, प्रेक्षापूर्वकारी, अतिचारों की गर्हा एवं जुगुप्सा करने वाले तथा शुद्ध चारित्रधारी होते थे, किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शिष्य चंचल चित्तवाले, मोही तथा जड़बुद्धि वाले होते हैं। अतः ईर्यापथ, आहारगमन, स्वप्न आदि में किसी भी समय अतिचार होने या न होने पर भी उन्हें सभी नियमों एवं प्रतिक्रमण को करने का विधान किया है। इसी विधान के अनुसार आज तक सभी मुनियों एवं आर्यिकाओं को नित्य प्रतिक्रमण करने की परम्परा निरन्तर चली आ रही है। प्रतिक्रमण आवश्यक के अन्तर्गत ही मूलाचार में दस मुण्डों का भी विवेचन मिलता है। पाँच इन्द्रियमुण्ड तथा मनोमुण्ड, वचोमुण्ड, कायमुण्ड, हस्त एवं पादमुण्ड । इस प्रकार इन दस मुण्डों से आत्मा पाप में प्रवृत्त नहीं होती, अतः उस आत्मा को मुण्डधारी कहते हैं। श्रमणाचार में प्रतिक्रमण का अपना विशिष्ट स्थान है । कतिपय श्रावकाचार ग्रन्थों में भी प्रतिक्रमण का स्वरूप एवं विधि का वर्णन मिलता है। आचार्य अमितगति के अनुसार सायंकाल संबंधी प्रतिक्रमण करते समय १०८ श्वासोच्छ्वास वाला कायोत्सर्ग किया जाता है। प्रातःकालीन प्रतिक्रमण में उससे आधा अर्थात् चौवन श्वासोच्छ्वास वाला कायोत्सर्ग कहा गया है। अन्य सब कायोत्सर्ग सत्ताईस श्वासोच्छ्वास काल प्रमाण कहे गये हैं। संसार के उन्मूलन में समर्थ पंच नमस्कार मंत्र का नौ बार चिन्तन करते हुए सत्ताईस श्वासोच्छ्वासों में उसे बोलना या मन में उच्चारण करना चाहिए। बाहर से भीतर की ओर वायु को खींचने को श्वास कहते हैं। भीतर की ओर से बाहर वायु के निकालने को उच्छ्वास कहते हैं। इन दोनों के समूह को श्वासोच्छ्वास कहते हैं। श्वास लेते समय ‘णमो अरहंताणं' पद और श्वास छोड़ते समय ' णमो सिद्धाणं' पद बोलें । पुनः श्वास लेते समय 'णमो आयरियाणं' पद और श्वास छोड़ते समय ' णमो उवज्झायाणं' पद बोलें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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