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जिनवाणी
15, 17 नवम्बर 2006
प्रतिक्रमणदिशा-निर्देश- प्रतिक्रमण पूर्वाभिमुख होकर अर्थात् पूर्व दिशा की ओर मुख करके अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए।
प्रतिक्रमण मण्डलीस्थापना विधि- प्रतिक्रमण करने वाले श्रमणों की मंडली 'श्रीवत्साकार' के समान होनी चाहिए । श्री वत्साकार मंडली स्थापना की विधि इस प्रकार है
गाथार्थ - यहाँ पर मंडली में आचार्य सबसे आगे बैठें, फिर आचार्य के पीछे दो साधु बैठें, दो के पीछे तीन साधु, तीन के पीछे फिर दो साधु पुनः दो के बाद एक साधु इस प्रकार नवगण समूह परिमाण की यह रचना होती है। इस गाथा में कही गई 'श्री वत्साकार मंडली' विधि पूर्वक करनी चाहिए। 'श्रीवत्सस्थापना' इस प्रकार है
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दैवसिक व रात्रिक प्रतिक्रमण का काल - यहाँ प्रतिक्रमण के विषय में कहा गया है कि दैवसिक प्रतिक्रमण रात्रि के प्रथम प्रहर तक करने पर भी शुद्ध होता है। रात्रि प्रतिक्रमण 'आवश्यक चूर्णि' के अभिप्राय से उघड पौरुषी (दिन की छह घड़ी) तक करने पर भी शुद्ध होता है और 'व्यवहार सूत्र' के अभिप्राय से पुरिमड्ढ (दिन का आधा भाग व्यतीत होने) तक करने पर भी शुद्ध होता है।
गाथार्थ - विधिमार्गप्रपा में रात्रिक प्रतिक्रमण कब करना चाहिए उस संबंध में कहा गया है कि जो वर्तमान का मास चल रहा हो, उससे तीसरे मास के नाम का नक्षत्र मस्तक पर आये तब रात्रिक प्रतिक्रमण करना चाहिए अर्थात् जैसे वर्तमान में श्रावण मास चल रहा है तो आश्विन मास में तीसरा मास होता है तब आश्विनी नाम का नक्षत्र मध्याकाश में आये उस समय रात्रिक प्रतिक्रमण का समय समझना चाहिए ।
४. राइयपडिक्कमणविही
राइयपडिक्कमणे पुण आयरियाई वंदिय भूनिहियसिरो 'सव्वस्स वि राइय' इच्चाइदंडगं पढिय सक्कत्थयं भणित्ता, उट्ठिय, सामाइय- उस्सग्गसुत्ताइं पढिय, उस्सग्गे उज्जोयं चिंतिय पारिय, तमेव पढित्ता, बीये उस्सग्गे तमेव चिंतिता सुयत्थयं पढित्ता; तईए, जहक्कमं निसाइयारं चिंतित्ता, सिद्धत्थयं पढित्ता, संडासए पमज्जिय, उवविसिय, पुत्तिं पेहिय, वंदणं दाउं, पुव्विं व आलोयणसुत्त पढण-वंदणय - खामणय-वंदणयगाहातिगपढण-उस्सग्गसुत्तउच्चारणाई काउं छाम्मासिय- काउस्सग्गं करेइ । तत्थ य इमं चिंतेइ - “ सिरिवद्धमाणतित्थे छम्मासियो तवो वट्टइ। तं ताव काउं अहं न सकुणोमि । एवं एगाइएगूणतीसंतदिणूणं पिन सकुणोमि । एवं पंच- चउ-ति-दु-मासे वि न सकुणोमि । एवं एगमासं पि जाव तेरसदिणूणं न सकुणोमि । " तओ चउतीस-बत्तीसमाइकमेण हाविंतो जाव चउत्थं आयंबिलं निव्वियं एगासणाइ पोरिसिं नमोक्कारसहियं वा जं सक्केइ तेण पारे । तओ उज्जोयं पढिय, पुत्तिं पेहिय, वंदणं दाउ, काउस्सग्गे जं चिंतियं तं चिय गुरुवयणमणुभणिंतो सय वा पच्चक्खाइ । तो 'इच्छामोणुसट्ठि' त्ति भणतो जाणूहिं ठाउं तिन्नि वड्डमाणधुईओ पढित्ता मिउसद्देणं सक्कत्थयं पढिय, उट्ठिय 'अरहंतचेइयाणं' इच्चाइपढिय, थुइचउक्केणं चेइए वंदेइ । 'जावंति चेइयाई' इच्चाइगाहादुगथुत्तं पणिहाणगाहाओ न भणेइ । तओ आयरियाई वंदेइ । तओ वेलाए पडिलेहणाइ करेइ
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