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________________ जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 त्ति ॥ ४. रात्रिक प्रतिक्रमण विधि रात्रिक प्रतिक्रमण विधि में सर्वप्रथम 'खमासमण सूत्र' पूर्वक आचार्यादि चार को वन्दन करता है। फिर मस्तक को भूमितल पर स्थित करके 'सव्वस्स वि राइय' 'प्रतिक्रमण स्थापना सूत्र' बोलता है । फिर " शक्रस्तवसूत्र" कहता है। Jain Education International 127 १३४ प्रथम सामायिक एवं दूसरा चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक- उसके बाद आसन से खड़े होकर सामायिकसूत्र " कायोत्सर्गसूत्रादि *" को बोलकर कायोत्सर्ग में एक 'उद्योतकर सूत्र का चिन्तन करता है । फिर कायोत्सर्ग पूर्ण कर प्रकट में 'उद्योतकर सूत्र' को बोलकर दूसरे कायोत्सर्ग में पुनः एक 'लोगस्स सूत्र' का चिन्तन करता है । फिर 'श्रुतस्तवसूत्र" बोलकर तीसरे कायोत्सर्ग में यथाक्रम से रात्रि में लगे हुए अतिचारों का चिन्तन करता है । अनन्तर 'सिद्धस्तवसूत्र' " कहता है । १३७ तीसरा वन्दन एवं चौथा प्रतिक्रमण आवश्यक- उसके बाद रात्रिक प्रतिक्रमण करने वाला साधक संडाशक स्थानों को प्रमार्जित कर, फिर नीचे बैठकर मुखवस्त्रिका की (२५ बोल पूर्वक) प्रतिलेखना करता है। फिर स्थापनाचार्य जी को द्वादशावर्त्तवन्दन करता है। तत्पश्चात् दैवसिक प्रतिक्रमण के अनुसार क्रमशः 'आलोचना सूत्र पढ़ता है; गुरु के समक्ष रात्रिकृत अतिचारों को प्रकट करता है, वंदित्तुसूत्र बोलता है, द्वादशावर्त्तवन्दन करता है और तीन आदि साधुओं से 'अब्भुट्ठिओमिसूत्र' पूर्वक क्षमायाचना करता है। पाँचवां कायोत्सर्ग आवश्यक- उसके बाद पुनः द्वादशावर्त्तवन्दन करता है, खड़े होकर 'आयरियउवज्झायसूत्र' की तीन गाथा बोलता है और 'कायोत्सर्ग सूत्र' आदि को प्रगट में बोलकर छह मासिक कायोत्सर्ग करता है। उस कायोत्सर्ग में इस प्रकार का चिन्तन करता है- श्री वर्द्धमान स्वामी के तीर्थ में छह मासिक तप वर्तता है उस तप को मैं छह मास के लिए नहीं कर सकता हूँ। इस प्रकार एक-एक दिन कम करता हुआ उनतीस दिन कम छह मास का तप भी नहीं कर सकता हूँ। इसी प्रकार पाँच, चार, तीन, दो मास का तप भी नहीं कर सकता हूँ । इसी प्रकार एक मास, एक मास में तेरह दिन कम का भी तप नहीं कर सकता हूँ। उसके बाद चौंतीस भक्त - १६ उपवास, बत्तीस भक्त - १५ उपवास आदि के क्रम से कम करता हुआ उपवास, आयंबिल, नीवी, एकासन आदि पौरुषी अथवा नवकारसी तक में से जिस तप को कर सकता है, अवधारण पूर्वक कायोत्सर्ग पूर्ण करता है । उसके बाद प्रकट में 'उद्योतकर सूत्र' बोलता है। छठा प्रत्याख्यान आवश्यक - इसके बाद मुखवस्त्रिका को प्रतिलेखित कर द्वादशावर्त्तवन्दन करता है। फिर उक्त कायोत्सर्ग में जिस तप को करने का चिन्तन किया था, उस तप के प्रत्याख्यान को गुरु वचन से बुलवाते हुए ग्रहण करता है अथवा स्वयं ही वह प्रत्याख्यान" करता है। उसके बाद 'इच्छामो अणुसट्ठि' "मैं आपके अनुशिक्षण की इच्छा करता हूँ।" ऐसा बोलते हुए बाँये घुटने के बल बैठकर अर्थात् बाँये घुटने को खड़ा उस तप For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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