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||15,17 नवम्बर 2006||
| जिनवाणी विधि भी करनी ही चाहिए। जैसाकि वर्द्धमान स्वामी की तीन स्तुति के बाद 'शक्रस्तवस्तोत्र'" बोलते हैं और दैवसिक प्रायश्चित्त का कायोत्सर्ग करते हैं।
पूर्वकाल में वर्द्धमान स्वामी की जो स्तुति बोली जाती है उन तीन स्तुति पर्यन्त ही प्रतिक्रमण था और इसलिए ही प्रतिक्रमण में तीन स्तुति कहे जाने के बाद किसी प्रकार का व्यवधान होने पर भी दोष नहीं माना जाता है। छिन्दन का अर्थ- व्यवधान के अर्थ में छिन्दन शब्द का प्रयोग है। १. छिन्दन- खण्डन करना, क्रियानुष्ठान में विक्षेप करना अथवा २. अंतरणि- व्यवधान करना, अथवा ३. अग्गलि- अर्गलि बन्द करना, विघ्न आगमन का संकेत करना ये तीनों ही शब्द एकार्थ सूचक हैं। छिन्दन के प्रकार- छिन्दन दो प्रकार का होता है १.-आत्मकृत २. परकृत। १. आत्मकृत- अपने ही अंग परिवर्तन से जो आड़ होती है अर्थात् अपने शारीरिक अंग आदि का बीच में चलना ‘आत्मकृत छिन्दन' है। २. परकृत- मार्जारी आदि अन्य प्राणी का बीच में होकर अर्थात् स्थापनाचार्य आदि मुख्यस्थापना व आराधक के बीच में होकर निकलने से जो आड़ होती है, वह परकृत छिन्दन' है। छिन्दन कब और कहाँ? पाक्षिक प्रतिक्रमण में- प्रत्येक क्षमायाचना करते हैं (जो पृथक् रूप से आलोचना किये हुए है उस) पृथक् कृत (अर्थात् एकाकी या अलग से प्रतिक्रमण करने वाले) आलोचक को छोड़कर (किसी का) छिन्दन दोष नहीं होता है। और इसलिए ही समाचारी में प्रत्येक क्षमायाचना करने के बाद मुखवस्त्रिका प्रतिलेखित नहीं की , जाती है। बिल्लीदोषनिवारण विधि- जब मार्जारी (बिल्ली) की प्रतिक्रमणादि क्रियाओं में आड़ होती है तब दोष निवारण के लिए निम्न गाथा बोलते हैं, वह इस प्रकार हैगाथार्थ- जो मार्जारी, कबडी, आँखों से कर्कश, कठोर है, वह चितकबरी (मार्जारी) मंडली के अन्दर संचरित हुई हों, (प्रवेश कर गई हों) तो उससे होने वाले दोषों का नाश हो, विशेष रूप से नाश हो।
उपर्युक्त गाथा का चौथा पद तीन बार बोलकर, क्षुद्रोपद्रव को दूर करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए फिर 'श्री शांतिनाथ भगवान् को नमस्कार हो' ऐसी (बुलन्द आवाज में) घोषणा करनी चाहिए। प्रतिक्रमण संबंधी विशेष कथन- चाहे श्रावक हो या साधु, कारण विशेष से जिन्होंने मंडली से पृथक् प्रतिक्रमण किया हो अथवा पृथक् रूप से आलोचना की हो, वे प्रतिक्रमण करने के तुरन्त बाद गुरु को वन्दन करके, आलोचना, क्षमायाचना और प्रत्याख्यानादि करते हैं।
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