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जिनवाणी
15, 17 नवम्बर 2006
गुरुथुइग
थुइतिन्नि त्ति पज्जतमेव पडिक्कमणमासि । अओ चेव थुइतिगे कड्ढिए छिंदणे वि न दोसो । छिंदणं ति वा अंतरणित्ति वा अग्गलि त्ति वा एगट्ठा। छिंदणं व दुहा- अप्पकयं, परकयं च । तत्थ अप्पकयं अप्पणी अंगपरियत्तणेण भवइ । परकयं जया परो छिंदइ ।
पक्खिय पडिक्कमणे पत्तेयखामणं कुणंताणं पुढोकयआलोयणं मुत्तुं नत्थि छिंदणदोसो । अओ चेव अम्ह सामायारीए मुहपोत्तिया पत्तेयखामणा-णंतरं न पडिलेहिज्जइ त्ति । जया य मज्जारिया छिंदइ तयाजा सा करडी कब्बरी अंखिहिं कक्कडियारि । मंडलमा संचय हय पडिहय मज्जारि-त्ति ॥ १ ॥
चउत्थपयं वारतिगं भणिय, खुद्दोपद्दवओहडावणियं काउसग्गो कायव्वो । सिरिसंतिनाहनमोक्कारो घोसेयव्वो । कारणंतरेण पुढोपडिकंता पुढोकय आलोयणा वा पडिकमणानंतरं गुरुणो वंदणं दाउं, आलोयणखामण-पच्चक्खाणाई कुणंति । पडिक्कमणं च पुव्वाभिमुहेण उत्तराभिमुहेण वा ।।
आयरिया इह पुरओ, दो पच्छा तिन्नि तयणु दो तत्तो । तेहिं पि पुणो इक्को, नवगणमाणा इमा रयणा ।। १ ।।
इइगाहा भणियसिरिवच्छाकारमंडलीए कायव्वं । श्रीवत्सस्थापना चेयम् - तत्थ देवसियं पडिक्कमणं रयणिपढमपहरं जाव सुज्झइ । राइयं पुण आवस्सयचुण्णि अभिप्पाएण उग्घाडपोरिसिं जाव, ववहारभिप्पाएण पुण पुरिमड्ढं जाव सुज्झइ ।
जो वट्टमाणमासो तस्स य मासस्स होइ जो तइओ । तन्नामयनक्खत्ते सीसत्ये गोसपडिक्कमणं ।।
३. दैवसिक प्रतिक्रमण में प्रक्षेप की गई विधि
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जनप्रभरि कहते हैं कि दैवसिक प्रतिक्रमण में, प्रायश्चित्त संबंधी अर्थात् " दैवसिक प्रायश्चित्त की विशुद्धि निमित्त किया जाने वाला कायोत्सर्ग करने के बाद 'क्षुद्र उपद्रव (तुच्छ उपद्रव) को दूर करने के निमित्त' सौ श्वासोच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। उसके बाद दो बार 'खमासमण सूत्र' पूर्वक वंदन करके स्वाध्याय करने की अनुमति ग्रहण कर, फिर घुटने के बल स्थित होकर स्वाध्याय रूप 'नमस्कार मंत्र' तीन बार बोलना चाहिए। उसके बाद विघ्नों को दूर करने के लिए 'श्री पार्श्वनाथ नमस्कार स्तोत्र' 'शक्रस्तव सूत्र”“ और ‘जावंति चेइयाई' इतना गाथापाठ बोलकर, एक खमासमणा पूर्वक 'जावंत केविसाहू' यह गाथा और पार्श्वनाथ का स्तव" योगमुद्रा से पढ़ना चाहिए और प्रणिधान की गाथा युगल को मुक्तासूक्ति मुद्रा से बोलना चाहिए। पश्चात् 'खमासमण' पूर्वक भूमि पर सिर झुकाकर 'सिरिथंभणयपुरट्टियपाससामिणो' इत्यादि दो गाथाएँ बोलकर, 'वंदणवत्तियाए' इत्यादि दण्डक पाठ पूर्वक, चार बार 'लोक उद्योतकरसूत्र' का कायोत्सर्ग करके, प्रकट में 'चतुर्विंशतिस्तव' को बोलना चाहिए । इस प्रकार यह प्रतिक्रमण की शेष विधि पूर्व पुरुषों की शिष्य परम्परा के क्रम से आचरित होकर आई है तथा 'आचरण ही निश्चय से आज्ञा है' इस वचन से शेष
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