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________________ |15,17 नवम्बर 2006|| | जिनवाणी 123 थोभवन्दन क्षमायाचना- पाक्षिक प्रतिक्रमण की समाप्ति के निमित्त क्षमायाचना करने के लिए, चार थोभवंदन" के द्वारा, तीन-तीन ‘नमस्कार मंत्र' को भूमि पर मस्तक रखकर बोलता है। उसके बाद दैवसिक का शेष प्रतिक्रमण करता है। पाक्षिक प्रतिक्रमण की विशेष विधि- यहाँ (पाक्षिक प्रतिक्रमण के बाद, दैवसिक प्रतिक्रमण करते हुए) विशेष इतना ध्यान रखना चाहिए कि श्रुतदेवता की स्तुति करने के बाद 'भुवन देवता' के कायोत्सर्ग में 'नमस्कार मंत्र' का चिन्तन कर भुवन देवता की ही स्तुति बोलते हैं अथवा सुनते हैं और स्तोत्र के स्थान पर 'अजितशांतिस्तव' बोलते हैं। इस प्रकार चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि भी उस-उस आलापक से जाननी चाहिए। कायोत्सर्ग के संबंध में- विशेष यह है कि जहाँ पाक्षिक प्रतिक्रमण में बारह 'उद्योतकर सूत्र' का चिंतन किया जाता है वहाँ चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में बीस 'लोगस्स सूत्र' का और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में चालीस ‘लोगस्स सूत्र' और ऊपर एक 'नमस्कार मंत्र' का चिन्तन किया जाता है। क्षमायाचना के संबंध में- जहाँ पाक्षिक प्रतिक्रमण की मंडली में पाँच आदि साधुओं के होने पर तीन के साथ संबुद्धा क्षमायाचना करने की परम्परा है, वहाँ चातुर्मासिक प्रतिक्रमण की मंडली में सात आदि साधु होने पर पाँच के साथ और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की मंडली में, नव आदि साधु होने पर सात के साथ संबुद्धा क्षमायाचना करने की परम्परा है। नियम से दो साधु आदि शेष रखने चाहिए ऐसा भावार्थ है। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में भुवनदेवता का कायोत्सर्ग नहीं किया जाता है और न ही स्तुति बोली जाती है। अस्वाध्याय का कायोत्सर्ग भी नहीं किया जाता है। रात्रिक व दैवसिक प्रतिक्रमण में ‘इच्छामोऽणुसटिं' यह बोलने के बाद एवं गुरु द्वारा प्रथम स्तुति बोले जाने के बाद शेष साधु मस्तक पर अंजलि करके, 'नमो खमासमणाणं' यह कहकर अथवा मस्तक पर हाथ जोड़कर वर्द्धमान की तीन स्तुतियाँ बोलते है। पुनः पाक्षिक प्रतिक्रमण में नियम से गुरु द्वारा तीन स्तुतियाँ पूर्ण करने के बाद शेष साधु वर्द्धमान की तीन स्तुतियों का अनुसरण करते हैं अर्थात् बोलते है ३. देवसियपडिक्कमणसेसविही देवसियपडिक्कमणे पच्छित्तउस्सग्गाणंतरं खुद्दोवद्दवओहडावणियं सयउस्सासं काउस्सग्गं काउं, तओ खमासमणदुगेण सज्झायं संदिसाविय जाणुट्ठियो नवकारतिगं कड्ढिय विग्घावहरणत्थं सिरिपासनाहनमोक्कारं सक्कत्थयं जावंति चेइयाई' ति गाहं च भणित्तु, खमासमणपुव्वं । 'जावंत केइ साहू' इति गाहं पासनाहथवं च जोगमुद्दाए पढित्ता, पणिहाणगाहादुगं च मुत्तामेत्तिमुद्दाए भणिय, खमासमणपुव्वं भूमिनिहितसिरो, 'सिरिथंभणयट्ठियपाससामिणो' इच्चाइगाहादुग्गमुच्चरित्ता, 'वंदणवत्तियाए' इच्चाइदंडगपुव्वं चउ लोगुज्जोयगरियं काउस्सगं काउं चउवीसत्थयं पढंति त्ति पडिक्कमणविहिसेसो पुव्वपुरिससंताण-क्कमागओ, 'आयरणा वि हु आण' त्ति वयणाओ कायव्वो चेव। जहा थुइतिगभणणाणंतरं सक्कत्थव-थुत्त-पच्छित्त-उस्सग्गा। पुव्वं हि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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