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________________ जिनवाणी 122 मुखवस्त्रिका को प्रतिलेखित करता है। उठकर, संबुद्धा (विशिष्ट ज्ञानप्राप्त गुरुजनों से ) क्षमायाचना -इसके पश्चात् पाक्षिक आलापक (वचन) से द्वादशावर्त्तवन्दन करके 'संबुद्धाखामणा"" अर्थात् विशिष्ट ज्ञानी गुरुओं से क्षमायाचना करता है। पाक्षिक आलोचना एवं प्रत्येक क्षमायाचना- उसके बाद प्रतिक्रमण करने वाला आराधक आसन से पाक्षिक आलोचना सूत्र" 'सव्वस्सवि पक्खिय' इत्यादि पर्यन्त पढ़कर फिर द्वादशावर्त्तवन्दन देकर कहता है- 'दिवस संबंधी पापों की आलोचना का प्रतिक्रमण करते हुए, प्रत्येक को क्षमायाचना करने के लिए मैं उपस्थित हुआ हूँ; और अन्तःकरण पूर्वक पक्ष संबंधी दोषों की क्षमायाचना करता हूँ' इतना बोलकर यथारात्निक (बड़े-छोटे के) क्रम से प्रत्येक साधु और श्रावक से क्षमायाचना" करता है । फिर कृत दोषों का मिथ्या दृष्कृत देकर, तप" (तपस्वी) की सुखसाता पूछता है और पाक्षिक सुखपृच्छा साधुओं से ही करता है, श्रावकों से नहीं । 15, 17 नवम्बर 2006 पाक्षिक प्रतिक्रमण - उसके बाद यथोचित मण्डली में स्थित होकर 'द्वादशावर्त्तवन्दन' देकर प्रतिक्रमण करने वाला शिष्य बोलता है- ‘दिवस संबंधी आलोचना का प्रतिक्रमण करते हुए पक्ष संबंधी पापों की शुद्धि निमित्त पाक्षिक प्रतिक्रमण करवाइये ।' उसके बाद गुरु द्वारा 'तुम सम्यक् प्रकार से प्रतिक्रमण करो' ऐसा कहे जाने पर शिष्य 'ऐसी ही इच्छा करता हूँ' इतना बोलकर फिर 'सामायिक सूत्र" और 'उत्सर्गसूत्र" बोलता है । पुनः एक 'खमासमण सूत्र' पूर्वक वंदन करके कहता है- 'पाक्षिक सूत्र' बोलने की अनुमति लेता हूँ। पुनः दूसरे 'खमासमण सूत्र' पूर्वक वंदन करके 'पाक्षिक सूत्र कहता हूँ' ऐसा कहकर तीन बार 'नमस्कार मंत्र' को बोलकर 'प्रतिक्रमण सूत्र " कहता है और जो प्रतिक्रमण सूत्र सुनते हैं वे 'उत्सर्ग सूत्र' के बाद ही तस्सउत्तरी करणेणं आदि तीन पाठ (करेमि भंते, इच्छामि ठामि, तस्सउत्तरी) बोलकर कायोत्सर्ग में स्थित हो जाते हैं। Jain Education International तदनन्तर 'पाक्षिकसूत्र' समाप्त होने पर, ऊर्ध्व स्थित (खड़ा) ही रहकर तीन 'नमस्कार मंत्र' बोलता है। फिर नीचे बैठकर तीन 'नमस्कार मंत्र' व तीन बार 'सामायिक सूत्र' के उच्चारण पूर्वक 'इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे पक्खिओ अइयारो कओ” इत्यादि पाठ को पढ़कर वंदित्तु सूत्र बोलता है । उसके बाद खड़े होकर 'आराधना के लिए उपस्थित हुआ हूँ' यहाँ से लेकर 'वंदित्तु सूत्र' की अंतिम गाथा तक पढ़ता है। पश्चात् एक 'खमासमण सूत्र' पूर्वक वंदन करके 'मूलगुण- उत्तरगुण में लगे हुए अतिचारों की विशुद्धि करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ' ऐसा बोलकर 'करेमि भंते' इत्यादि और 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं' इत्यादि सूत्र पढ़कर कायोत्सर्ग में बारह 'उद्योतकर सूत्र" का चिन्तन करता है । उसके बाद कायोत्सर्ग पूर्ण कर, 'उद्योतकर सूत्र' बोलकर पाक्षिक प्रतिक्रमण की निर्विघ्न समाप्ति के निमित्त मुखवस्त्रिका को प्रतिलेखित कर, द्वादशावर्त वन्दन करता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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