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________________ 116] जिनवाणी 15,17 नवम्बर 2006 की विशुद्धि होती है और सिद्धगति का मार्ग प्रशस्त होता है। (उत्तराध्ययन २९वाँ अध्ययन चौथा बोल) ___ पाँचवाँ आवश्यक कायोत्सर्ग है। वस्तुतः समभावरूप सामायिक, आत्मोपलब्धि रूप सामायिक, अरिहंत सिद्ध परमात्माओं और गुरु भगवन्तों की स्तुति-वंदना से आत्मा को शुद्ध कर पापों की आलोचना करके व्रत-महाव्रत लिए हुए हों तो उनके अतिचार दोषों को धिक्कार कर साधक के लिए उत्कृष्टतम धर्मध्यान की साधना हेतु यह पाँचवाँ आवश्यक है। लोगस्स की पाटी तो यहाँ तक पहुँचते हुए छह बार बोल ली। अब ध्यान में, ठाणांग सूत्र चौथे ठाणे के अनुसार, आज्ञा-विपाक-अपाय-संस्थान विचय में जाकर वीतराग वाणी में दृढ़ हुए आत्मतत्त्व पर ही दृष्टि करने के लिए एकत्व-अनित्य-अशरण-संसार भावनाओं का चिन्तन-मनन करते हुए परपदार्थ शरीरादि, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म के कारण होने वाले परभाव से हटकर, ज्ञाता-द्रष्टारूप आत्मा की रमणता का पुरुषार्थ करना चाहिए। कायोत्सर्ग में जाने की पाटी भी यही है। साधक समस्त विकारी भावों का प्रायश्चित्त कर, आत्मा को विशुद्ध करने और निःशल्य होने के लिए कायोत्सर्ग में जाता है। विषय-कषायों में अनुरक्त आत्मा को वोसिरा कर शुद्ध आत्मा में जाता है। इसी से कर्मों के पुंज के पुंज भस्मीभूत होकर निर्जरा होती है। यही प्रतिक्रमण का लक्ष्य है। ___ यदि ऐसा उत्कृष्ट भावप्रतिक्रमण नहीं होता है, कुछ सार नहीं निकलता है तो फिर पाटी रूप/शब्द रूप प्रतिक्रमण नहीं करें क्या? तो कहना होगा कि उसका निषेध नहीं है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें प्रतिक्रमण न करने के कारण उग्र दुष्परिणाम भोगने पड़े। भगवान् महावीर ने त्रिपृष्ठ वासुदेव के पूर्वभव में पाप कर लिया और प्रतिक्रमण आदि नहीं किया तो वह कर्म प्रगाढ़ हो गया। नाच-गाने चल रहे थे। राजा त्रिपृष्ठ वासुदेव को नींद आने लगी। अंगरक्षक को आदेश दे दिया था कि मुझे नींद आने लगे तो नाच-गान बंद करवा देना। नींद आयी। अंगरक्षक ने सोचा- राजा तो प्रतिदिन मजा लेते हैं, आज मैं भी ले लूँ। चालू रहने दिया। राजा की नींद खुली। देखा नाच-गाने अभी तक चल रहे हैं। अंगरक्षक पर क्रोध आया- 'दुष्ट कहीं का, क्या आदेश दिया था, सुनता नहीं क्या, बहरा हो गया था?' दूसरे अंगरक्षक को कहा- इसके कानों में गरमागरम सीसा भरवा दो। राजा होने का अहंकार, आदेश नहीं मानने वाले पर क्रोध और अंगरक्षक को भयंकर पीड़ा पहुँचाना। ऐसा करके पश्चात्ताप, प्रतिक्रमण, धिक्कार आदि कुछ नहीं किया और वह भव पूरा हो गया। उसके कारण प्रगाढ़ कर्म-बंध हो गया। अन्तिम भव में प्रभु महावीर को मुनि अवस्था में कान में कीलें ठुकवाकर भोगना पड़ा। व्यवहारनय से कहा- भोगना पड़ा। निश्चय नय से तो आत्मा में लीन थे, उससे दुःखी नहीं हुए, प्रदेश वेदन तो हुआ, विपाक वेदन नहीं। इसी प्रकार गजसुकुमाल ने निन्यानवें लाख भव पूर्व सौत के पुत्र के सिर पर गरमागरम रोटा बँधवाकर निकाचित कर्म बाँधा तो अन्तिम भव में सिर पर अंगारे रखवाकर भोगना पड़ा। खंदक ऋषि ने काचरा छीलने में प्रसन्नता प्रकट कर निकाचित कर्म बाँधा जो अन्तिम भव में शरीर का चमड़ा उतरवाकर भोगना पड़ा। महाराजा श्रेणिक ने गर्भवती हरिणी का शिकार किया, माता एवं सन्तान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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