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15.17 नवम्बर 2006
जिनवाणी
स्मरण-चिन्तन, क्रमशः एक-एक पाप की आलोचना होती है?
_कुछ भाई पूछते हैं- प्रतिक्रमण से कर्मो की निर्जरा तो होती होगी? यह तब पूछा जाता है जब स्वयं ने अनुभव न किया हो। यदि वस्त्र का मैल उतर जाए, सिर का भार उतर जाए तो हम दूसरे को नहीं पूछते, क्योंकि स्वयं के अनुभव में आ जाता है। इसी प्रकार प्रतिक्रमण करने या सुनने से कर्म मैल धुला या बद्धस्पृष्ट कर्म का बोझ हल्का हुआ तो स्वयं को अनुभव में आना चाहिए। यह अनुभव में नहीं आता, इसलिए ऐसा पूछते हैं। पूर्वबद्ध-कर्म व्यक्ति को रागादि विकारी भाव में ले जाना चाहता है, अघाती कर्म के फलस्वरूप अनुकूल-प्रतिकूल व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति मिलने पर व्यक्ति राग या द्वेष, हर्ष या शोक, रति या अरति, आसक्ति या रागद्वेष में चला जाता है। यदि साधक उसके अनुसार वर्तन न कर वीतरागता, मध्यस्थभाव, विरति, अनासक्ति में जाता हो तो समझो निर्जरा हो रही है। स्वयं के अनुभव में आएगी।
वस्तुतः तो केवलिप्रज्ञप्त धर्म का श्रवण कर देव-गुरु-धर्म तत्त्व और जीव से लेकर मोक्ष तत्त्व का श्रद्धान-प्रतीति-अनुभव होते ही विरति में जाने का तीव्र भाव प्रकट होता है। किन्तु पुरुषार्थ तीव्र नहीं होता, अतः अंशतः विरति होती है। इसलिए सम्यक्त्वी स्वयं ही पाँच पापों की सीमा करने रूप संकल्प और गुणव्रत-शिक्षाव्रत लेता है। फिर उनमें स्खलना हुई, अतिचार दोष लगे उसकी आलोचना करता है। व्रत लेने पर उनमें लगे अतिचार-दोषों एवं १८ पापों की आलोचना निंदना-गर्दा प्रतिक्रमण है।
अभी प्रतिक्रमण की शब्दरूप पाटी और उसके बोलने तथा विधि में की जाने वाली क्रिया पर भरपूर जोर है, परन्तु भावों पर ध्यान ही नहीं है। उदाहरणतः वंदना की 'खमासमणो' की पाटी लें। पहले भाग में है"हे क्षमाश्रमण! मैं सर्व सावद्य योगों से परे होकर शक्ति अनुसार आपको वंदन करना चाहता हूँ अतः आपके अवग्रह में आने की अनुज्ञा दीजिए। दूसरे भाग में हाथ जोड़ मस्तक से चरण स्पर्श कर वंदना कर, उनके ध्यानादि में पहुँचने वाली बाधा के लिए क्षमा माँगता है। तीसरे भाग में उनकी रत्न-त्रयरूप साधना एवं शरीर की सुख साता पूछता है और अविनय आशातना हेतु क्षमा और प्रतिक्रमण काल में हुई आवश्यकी के अतिचार दोष को धिक्कारता है। अन्तिम भाग में उनके प्रति हुई ३३ आशातनाओं की क्षमा माँगता है।
प्रथमतः तो इस पाटी का अर्थ ही ध्यान में नहीं है। व्यवहार में वैसी क्रिया होती ही नहीं। होती भी है तो वह प्रतिक्रमण पूरा होने पर। फिर 'अहो कायं काय' और 'जत्ता भे जवणिज्जं च भे' में हाथ कैसे जुड़ें, प्रदक्षिणा कैसे हो, किस अक्षर के उच्चारण में शरीर की कौनसी क्रिया करें, इसे खूब पढ़ाया-किया भी जाता है, पर क्या तब गुरु के आत्मिक गुणों पर दृष्टि जाती है? क्या उनका गुणग्राम, गुणकीर्तन होता है? क्या उनके रत्नत्रयाराधना से आत्मा की शुद्ध दशा पर दृष्टि जाती है? क्या उनके जैसे गुण हमारे में भी प्रकट होते हैं? क्या उनके प्रति हुई अविनय-आशातना का चिन्तन-मनन कर स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्त कर उस हेतु उनसे क्षमायाचना की जाती है? प्रायश्चित्त दंड लिया जाता है? पुनः वैसा न करने का दृढ़ निश्चय होता है? इन भावों पर ध्यान ही नहीं है। वस्तुतः इन पर ध्यान जाना चाहिए। तब भाव वंदना हुई। उससे ज्ञान-दर्शन-चारित्र
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