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|| जिनवाणी
||15,17 नवम्बर 2006 कोई शत्रु नहीं, राज्य वैभव नहीं- सभी अनित्य क्षणभंगुर हैं। अहो! धिक्कार है मुझे, धिक्कार है, ऐसा शब्दातीत आत्मभावों से पश्चात्ताप अनुचिन्तन करते हुए समस्त पापों का परित्याग करके, करणगुण श्रेणीधर्मध्यान से शुक्लध्यान में जाकर सर्व मोहनीय कर्म का क्षय कर देते हैं, केवलज्ञान हो जाता है।
ऐसी ही मोहदशा एवं वासनाभाव जाग्रत हुआ- मुनि रथनेमि को, परन्तु सद्गुरु रूप में समक्ष उपस्थित महासती राजीमती की फटकार से सुस्थिर हो, पुनः आत्म समाधिस्थ हो गए, उसी भव में मोक्ष चले गए। किससे? किए हुए दुष्कृत पापों- महाव्रतों में लगे दोषों की आलोचना प्रतिक्रमण और गर्दा करने से।
ऐसा ही धिक्कार निकला इलायती पुत्र या इलायची कुमार के द्वारा। नटी के रूपलावण्य से आकर्षित होकर वासना की दासता में पिता की प्रतिष्ठा, धन-वैभव की परवाह न करते नट बना। नट का खेल करते दृष्टि पड़ी गोचरी बहराने वाली अति रमणीक स्त्री पर। अहो! इस नटी से भी कई गुनी सुन्दर, अप्सरा जैसी। मुनि कैसे, मात्र अपनी गोचरी में, एषणा समिति के दोष न लग जाएँ, उसी गवेषणा में मगन। मैं कैसा वासना का पुतला और ये कैसे वासनादि, पंचेन्द्रिय विषयों के विजेता, मात्र आत्मा में ही रमणता करके शुद्ध दशा प्रकट करने वाले। मुनि के दर्शनमात्र से मुनित्व और शुद्ध आत्मा का चिन्तन करने से अपनी आत्मा को केवलज्ञान हो गया। तात्पर्य यह है कि मात्र दो घड़ी के पश्चात्ताप-अनुचिन्तन से केवलज्ञान हो जाता है। अतः शब्द या द्रव्य प्रतिक्रमण से भाव प्रतिक्रमण में जाने से ही संवर, निर्जरा एवं मोक्ष है।
गर्हापद में आया है- कुछ लोग मन से गर्दा करते हैं (वचन से नहीं) कुछ लोग वचन से गर्दा करते हैं (मन से नहीं) ऐसे ही कुछ लोग मात्र काया से गर्दा करते हैं (मन से नहीं) ऐसे ही कुछ लोग मात्र काया से गर्दा करते हैं (मन और वचन से भी नहीं)। -ठाणांग सूत्र २/१ । ऐसा ही प्रत्याख्यान के लिए भी आया है।
इस दृष्टिकोण से वर्तमान में प्रचलित प्रतिक्रमण पर भी विचार करें। पाटियों रूप/ शब्दरूप प्रतिक्रमण हो रहा है वर्षो से। प्रतिक्रमण करने-सुनने वाले भी यदि उन प्राकृत पाटियों का अर्थ-मर्म नहीं जानते और तदनुसार भावों में नहीं जाते तो ठाणांग सूत्र के अनुसार यह मात्र वाचनिक-कायिक क्रिया आत्मा की शुद्धावस्था प्रकट नहीं कर सकती। उत्तराध्ययन सूत्र (अध्ययन ६, गाथा १०-११) में भी भाषा के स्थान पर भावों की महत्ता प्रतिपादित है। प्रतिक्रमण-साधक यदि यही प्रतिक्रमण अर्थ जानकर, समझपूर्वक करें तब तो संवर-निर्जरा होती है और शब्द रूप ही हो तो कुछ काल तक सावध योग की क्रिया रुकने से, अशुभ से शुभ में आने से पाप से पुण्य हुआ। वह भी मन शुभ में प्रवृत्त हो तब। इसलिए प्रतिक्रमण का अर्थ भी जानना आवश्यक है।
सजग साधक को तो तुरन्त यह ध्यान में आता है कि उससे अमुक पाप हो गया या व्रत महाव्रतसमिति में दोष या अतिचार-अनाचार लग गया। वह उसी समय उसका पश्चात्ताप करके धिक्कार कर लेता है। बीच के बाईस तीर्थंकरों के काल में ऐसा ही था। अब ऐसी सजगता नहीं रहती, इसलिए उभयकालीन प्रतिक्रमण का विधान हुआ। परन्तु क्या उस अवधि में प्रतिपल होने वाले १८ पापों, अतिचार-दोषों का
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