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15, 17 नवम्बर 2006
दुक्कड' देकर भी गलती को दोहराया जाता है।
विचारणीय यह है कि प्रतिक्रमण करने से क्या पाप अतिचार दोष धुल गए? आत्मा शुद्ध हुई। संवरनिर्जरा हुई ? प्रतिक्रमण तो संवर-निर्जरा है। आभ्यन्तर तपों में प्रथम प्रायश्चित्त का भेद है। वह मात्र शब्द या पाटी रूप नहीं हो सकता। उससे परे, अत्यन्त गहन, आत्म-चिन्तन में जाकर, अन्तःकरण से अपनी दुरात्मा को दुष्कृत्य के लिए धिक्कारना, पश्चात्ताप करना, उस दुष्कृत पापादि के कर्ममल को धोकर पवित्र हो जाना भाव प्रतिक्रमण है । यह शब्दातीत अवस्था है ।
जिनवाणी
गुरुणी चन्दनबाला उलाहना - फटकार दे रही थी, रात्रि में भी समोसरण में कैसे बैठे रहे मृगावतीजी ? उनके यहाँ ठहरने के आधार पर्याप्त थे। मुझ जैसे तो पूरे तर्क से उत्तर देते - ओ गुरुणी जी, फटकारने की आवश्यकता नहीं है, मैं भगवान् के समोसरण में साक्षात् तीर्थंकर की वाणी सुनने में एकाग्रमन- तल्लीन थी, फिर सूर्य-चन्द्र देव साक्षात् आए हुए थे- प्रकाश ही प्रकाश था, वे गए तो रात हुई तो तुरंत चली आई। पर महासती मृगावती ने गुरुणी को कुछ भी तर्क नहीं दिया, विनयपूर्वक सुनती रही। गुरुणी मेरे हित में, आत्मकल्याण हेतु ही कह रही हैं, अतः मृगावती आचार-स्खलना की अन्तरमन से आलोचना करती हैं, आत्मसाक्षी से गर्हा करती हैं, दुष्कृत्य को धिक्कारते हुए आत्म-रमणता में चली जाती हैं और केवलज्ञानकेवलदर्शन प्रकट हो जाता है।
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मृगावती को अंधेरी रात में सर्प दिखा, गुरुणी का हाथ सरकाया । गुरुणी ने पूछा- कैसे देखा ? ज्ञान से। अप्रतिहत या प्रतिहत ? आपकी कृपा हो तो फिर कमी क्या ? तुरंत गुरुणी पश्चात्ताप - अनुचिन्तन करती है कि ओह! मैंने ऐसे उत्कृष्ट साधक, केवली की आशातना की । आत्मनिंदा - आत्मावलोकन- स्वात्मरमणता करते-करते उन्हें भी केवलज्ञान हो गया।
साधक अपने कृतकर्मों की आलोचना से घोर कर्मोत्पादक माया-' - निदान - मिथ्यादर्शन शल्यों को निकाल फेंकता है, मोक्षमार्ग - विघातक अनंत संसार - वर्द्धकों को दूर कर देता है, ऋजुभाव को प्राप्त होता है । (उत्तरा.२९वाँ अध्ययन, पाँचवाँ बोल ) पश्चात्ताप अनुचिंतन करके समस्त पापों का परित्याग कर करणगुण श्रेणी प्राप्त कर मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय करता है, यह निंदना का फल है । (उत्तराध्ययन २९वाँ अध्ययन, बोल छठा)
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मुनि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने शब्द सुना कि पड़ौसी राजा ने बेटे पर आक्रमण कर दिया। बेटे पर ममता, स्वयं के राजत्व का अहंकार, पड़ौसी राजा के प्रति शत्रुता का भाव और भावों ही भावों में भयंकर घमासान युद्ध करके हजारों सैनिकों की मानसिक हत्या । अनित्य संसार के मायाजाल में फंस गए, उन अनन्त कर्मों का उपार्जन कर लिया जो मोक्ष मार्ग विघातक हैं। परन्तु समक्ष आए शत्रु राजा को मुकुट से मार डालूँ, ऐसा भाव आया। सिर पर हाथ जाते ही द्रव्य मुंडन रूप द्रव्य महाव्रतों ने सावधान कर दिया । पश्चात्ताप अनुचिन्तन किया - किसका पुत्र, किसका शत्रु, किसका राज्य ? मेरा कोई पुत्र नहीं, कोई परिजन नहीं - सभी संयोगी । मेरा
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