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________________ द्रव्य प्रतिक्रमण से जायें भाव प्रतिक्रमण में श्री उदयमुनि जी म. सा. प्रतिक्रमण के पाठों का शब्दरूप में उच्चारण द्रव्य प्रतिक्रमण है तथा भावों के साथ अपने द्वारा कृत दोषों की आलोचना, निन्दना एवं गर्हणा भाव प्रतिक्रमण है। जब कोई साधक द्रव्य प्रतिक्रमण से भाव प्रतिक्रमण में जाता है तो वह संवर-निर्जरा की साधना के साथ मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ होता है। श्री उदयमुनि जी म.सा. ने विभिन्न दृष्टान्तों से भाव प्रतिक्रमण का महत्त्व स्थापित किया है । -सम्पादक 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 112 आलोचण-निंदण- गरहणाहिं अब्भुट्ठिओ अकरणाए । तं भावपडिक्कमणं, सेसं पुण दविदो भणियं ।। जिस कृतकर्म की आलोचना, निन्दना, गर्हा करें उस अकृत्य का पुनः आचरण न करें, यही भाव प्रतिक्रमण का रहस्य है, शेष तो मात्र द्रव्य प्रतिक्रमण अर्थात् शब्द रूप प्रतिक्रमण है। गणधर गौतम ने प्रश्न पूछा- भगवन्! श्रमणोपासक को पहले स्थूल प्राणातिपात का अप्रत्याख्यान होता है, फिर प्रत्याख्यान करते हुए क्या करता है ? भगवान् ने उत्तर दिया 'वह अतीतकाल को प्रतिक्रमता है, वर्तमान काल को संवरता है. और अनागत काल का प्रत्याख्यान करता है। (व्याख्याप्रज्ञप्ति ८.५) छः आवश्यक रूप प्रतिक्रमण में छठा आवश्यक प्रत्याख्यान है। छहों मिलकर ही प्रतिक्रमण कहलाते हैं। मिथ्यात्व नामक मोहकर्म से होने वाले भयंकर आस्रव द्वार को रोकने वाला समकित श्रावक कहलाता है । सम्यक्त्व से संवर तो किया, पर वह प्राणातिपातादि का प्रत्याख्यान नहीं कर पाता, क्योंकि उसे अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय का उदय होता है। फिर उसका शमन करके वह बारह स्थूल व्रतों को ग्रहण करता है। उन व्रतों में लगे हुए अतिचार दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमण चौथे आवश्यक में करता है। आत्मा की उस शुद्धता के फलस्वरूप आत्मध्यान (कायोत्सर्ग) में लीन होता है। तब छठे आवश्यक प्रत्याख्यान में क्या करता है तो उत्तर मिला- जिन पापों-अतिचार - दोषों की आलोचना, प्रतिक्रमण किया भविष्य में उन्हें नहीं करूँगा, ऐसा संकल्परूप प्रत्याख्यान करता है। Jain Education International शब्दरूप, पाटीरूप, परम्परागत द्रव्य-प्रतिक्रमण बोला-सुना तो जाता है, परन्तु जीवन देखें तो कोई परिवर्तन नहीं, वही पंचेन्द्रिय विषयों में रति- अरति, वही राग-द्वेष-मोह, वही कषाय, परिवार में वैसी ही ममता, धन की तृष्णा, परिग्रह की मूर्च्छा तो यह प्रतिक्रमण तो 'कुम्हारवाला' हुआ, जिसमें 'मिच्छा मि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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