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________________ 17 |15,17 नवम्बर 2006|| || जिनवाणी दोनों को तड़पते-तड़पते मरते हुए देखकर भी जोर से अट्टहास कर मजा लिया तो नारकी का बँध पड़ गया। वे बाद में क्षायिक सम्यक्त्व और तीर्थंकर गोत्र उपार्जन करके भी नारकी का दुःख भोग रहे हैं। जमाली भगवान् महावीर के मत से भिन्न प्ररूपणा करने लगे। निह्नव हो गए। दीर्घकाल तक संयम पाला। कठोर तप किया। व्याख्याप्रज्ञप्ति (९/३३) में वर्णन है कि वे विरसाहारी, अन्ताहारी, प्रान्ताहारी, रुक्षाहारी, तुच्छाहारी, अरसजीवी, विरसजीवी, उपशांतजीवी, विविक्तजीवी थे। अन्तिम समय में संथारासंलेखना कर प्रतिक्रमण किया, परन्तु अपने मिथ्याभिनिवेश के भ्रम से मुक्त नहीं हुए। स्वयं भी दुर्बोध रहे, अन्यों को भी भ्रमित किया। ज्ञान के प्रत्यनीक होकर भी उसका प्रतिक्रमण-पश्चात्ताप नहीं करने से किल्विषी देव बनना पड़ा। ऐसा ही एक उदाहरण व्याख्याप्रज्ञप्ति (१३/६) में है कि पिता ने तो सोचा कि पुत्र राज्य मोह में न फँसे, मुक्तिमार्ग चुन ले, इसलिए उसे राज्य नहीं दिया और भानजे को दिया। पुत्र अभीचिकुमार नाना के यहाँ रहते हुए श्रमणोपासक हो गया। प्रतिक्रमण करता था। उसमें समस्त ८४ लाख जीवयोनियों से क्षमायाचना करता था। पर ‘एक दुष्ट पिता को छोड़कर' ऐसा बोलता था। पिता विषयक वैर विस्मृत न कर भव पूरा हो गया तो असुरकुमार देव बनना पड़ा। इनकी तुलना में देखें कि ११४१ मनुष्यों की हत्या का पाप भी अर्जुनमाली अणगार ने मात्र ६ माह में प्रतिक्रमण करके, उसके ही एक भाग धर्मध्यान में लीन होकर, समभाव से गालियाँ, थू-थू, लात-घूसों का परीषह सहकर क्षीण कर दिया एवं सर्व कर्मो से मुक्त हो गए। ये समस्त उदाहरण हमें सजग करते हैं कि प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप, धिक्कार, आलोचना, गर्दा आदि न करते हुए वह भव पूरा हो जाता है तो अगले भव में वह कर्म फल उसे भोगना पड़ता है। अतः यह कैसे कहें कि प्रतिक्रमण नहीं करना ? प्रतिक्रमण न करने से तो उग्र दुष्फल मिलता है। अतः प्रतिक्रमण अवश्य करें, परन्तु वही क्रिया यदि सम्यक्-समझपूर्वक, भावपूर्वक अन्तःकरण से की जाए तो उसका असंख्यात गुणा, अनन्तगुणा लाभ हो सकता है। -द्वारा सोनीसन्स गारमेन्ट्स, १-यू. बी., जवाहर नगर, दिल्ली-११०००७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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