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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ६३ चार्वाकदर्शन - भारतीय दर्शनों में चार्वाकदर्शन या लोकायतदर्शन २५०० वर्ष से पुराना मानते हैं। यह दर्शन आत्मा, मोक्ष, पुण्य और पाप का फल आदि की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार नहीं करता हैं, इसलिए इसे नास्तिक दर्शन भी कहते हैं। यह दर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है तथा शरीर एवं चेतना को अभिन्न स्वीकार करता है। चार्वाकदर्शन कहता है कि आत्मा जैसा कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है अगर हो, तो उसका प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता है। जो दिखता है, वह तो शरीर है; अतः जो शरीर है, वही आत्मा है। यशोविजयजी इस मत की समीक्षा करते हुए कहते हैं- "चार्वाकदर्शन की यह मान्यता मिथ्या है कि शरीर ही आत्मा है। कारण यह है कि संशयादि के कारण जीव प्रत्यक्ष ही है।"८° आत्मा है या नहीं या "किम अस्मि नास्मि (मैं हूँ या नहीं)-यह संशय किसको होता है।"६१ विचारशक्ति के कारण ही यह संशय उत्पन्न हुआ और इस विचारशक्ति को हम ज्ञानगुण के रूप में पहचान सकते हैं। चूंकि गुणी के बिना गुण नहीं रह सकता है, तथा गुण और गुणी में कथंचित् अभेद होता है, अतः आत्मा ही गुणी है, इस प्रकार के संशय के प्रत्यक्ष आत्मा का प्रत्यक्ष सिद्ध होता ही है। विशेषावश्यकभाष्य की टीका में भी कहा गया है"देह मूर्त और जड़ है, 'संशय' ज्ञानरूप है और ज्ञान आत्मा का गुण है तथा आत्मा अमूर्त है। गुण अनुरूप गुणी में ही रहते है।"६२ ज्ञानगुण अगर शरीर का गुण मानते हैं, तो यह गुण 'शव' में भी होना चाहिए; परंतु 'शव' संशय करके कुछ नहीं पूछता है। पूछने वाला शरीर से भिन्न है, इसी को आत्मा कहते हैं। पाश्चात्य विचारक देकार्त ने भी इसी तर्क के आधार पर आत्मा के अस्तित्त्व को सिद्ध किया है। वह कहता है- “सभी के अस्तित्त्व में सन्देह किया जा सकता है, परंतु सन्देहकर्ता में सन्देह करना तो सम्भव नहीं है। ६०. तदेतदर्शनं मिथ्या जीवः प्रत्यक्ष एव यत् गुणानां संशयादीनां प्रत्यक्षाणामभेदतः ।।१६।। (३६०) -मिथ्यात्वत्याग अधिकार -अध्यात्मसारः उ. यशोविजयजी। ६१. जइ नत्थि संसइच्चिय किमस्थि नस्थि त्ति संसओ करस्त? -विशेषावश्यकभाष्य गाथा -१५५७ ६२. देहोऽगुणीति चेत् न देहस्य मूर्तत्वाऽजड़त्वात्त्व ज्ञानस्य चामूर्तत्वाद बोध रुपत्त्वात्त्व न चाननुरूपाणां गुण गुणी भावो युज्यते। -विशेषावश्यकभाष्य टीका पृष्ठ -६६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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