SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री सन्देह का अस्तित्त्व सन्देह से परे है। सन्देह करना विचार करना है और विचारक के अभाव में विचार नहीं हो सकता है। 'मैं विचार करता हूँ, अतः मैं हूँ'- इस प्रकार देकार्त के अनुसार भी आत्मा का अस्तित्त्व स्वयंसिद्ध है।"६३ आचार्य शंकर ब्रह्मसूत्रभाष्य में ऐसे ही तर्क देते हुए कहते हैं-"जो निरसन कर रहा है, वही तो उसका स्वरूप है।" आत्मा के अस्तित्त्व के लिए स्वतःबोध को आचार्य शंकर भी एक प्रबल तर्क के रूप में स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि “सभी को आत्मा के अस्तित्त्व में भरपूर विश्वास है; कोई भी ऐसा नहीं है, जो यह सोचता हो कि मैं नहीं हूँ।" चार्वाकदर्शन कहता है कि, मैं देखता हूँ, मैं सुखी हूँ आदि अहंकार और ममकार का जो अनुभव होता है, वह शरीर का धर्म है। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि चार्वाक की यह बात युक्तिसंगत नहीं है; कारण कि “शरीर के जो धर्म हैं, वे तो नेत्रादि इन्द्रियों से प्रत्यक्ष दिखते हैं। शरीर के जो गुणधर्म हैं, वे पाँचों इन्द्रियों में से कोई एक या अधिक इन्द्रियों से ग्राह्य बनते हैं। अहं को जो शरीर का धर्म मानते हो, तो उसे भी इन्द्रियों से ग्राहय बनना चाहिए, परंतु ऐसा नहीं होता है,"६५ इसलिए अहंकार शरीर का धर्म मानने योग्य नहीं है। “अहं शब्द को ही शरीर के लिए प्रयुक्त माना जाए तो मृत शरीर में भी अहं प्रत्यय होना चाहिए, किन्तु वैसा नहीं होता है।" चार्वाकदर्शनवादी शरीर को ही आत्मा मानते हैं, तो प्रश्न यह उठता है"बालक जब युवा होता है, तब वही शरीर नहीं रहता। यह शरीर युवान का शरीर हो जाता है। अतः शरीर के बदलने पर बाल्यकाल के संस्मरण युवा को नहीं होना चाहिए, परंतु अनुभव यह कहता है कि बाल्यकाल के संस्मरण युवा को होते हैं। चार्वाकवादी कहते हैं कि स्मरण हो तो भी आत्मा अलग-अलग हो सकती है, किन्तु ऐसा मानने से मिठाई एक व्यक्ति खाए और स्वाद दूसरा ६३. पश्चिमीदर्शन पृष्ठ-१०६ ६४.. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य -३/६/७ ६५. वही १/१/२ ६६. न चाहं प्रत्ययादीनां शरीरस्यैव धर्मता। नेत्रादि ग्राहृतापत्तेर्नियतं गौरतादिवत् ।।१६।। - मिथ्यात्वत्याग अधिकार -अध्यात्मसार -उपाध्याय यशोविजयजी ६७. देह एवास्य प्रत्यथस्य विषय इति चेत्न जीव विप्रभुवतेऽपि देहेतदुत्पत्ति प्रसंगत - विशेषावश्यकभाष्य गाथा -१५५६ की टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy