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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ६५ ἐς अनुभव करे, यह आपत्ति आयेगी।" इसीलिए बाल्यावस्था, यौवनावस्था और वृद्धावस्था - तीनों में एक ही आत्मा स्वीकार करना पड़ेगी। अतः कहना उचित होगा कि शरीर आत्मा नहीं है। चार्वाकवादी की ऐसी दलील भी हैं कि शरीर को नहीं, किन्तु उसके एक अंग को आत्मा मान सकते हैं। उनका यह तर्क भी ठीक नहीं है। आँख, नाक आदि में से किसी एक अंग को आत्मा मानने पर विसंगति आएगी, क्योंकि उस अंग के नष्ट होने पर भी उसके द्वारा हुए अनुभवों की स्मृति तो होगी ही अतः शरीर के अंग को आत्मा नहीं मान सकते हैं। जैसे - " गवाक्ष से देखी गई वस्तु का उसके बिना भी देवदत्त स्मरण कर सकता है, वैसे ही इन्द्रिय व्यापार के अभाव में भी उनसे उपलब्ध पदार्थ का स्मरण करने वाली आत्मा को भी इन्द्रियों से भिन्न मानना चाहिए। इस प्रकार ज्ञानादि गुणों को शरीराश्रित मानने रूप प्रत्यक्ष अनुमान से बाधिक होने से भ्रान्त है । ' ६६ आत्मा अमूर्त है, अतः उसका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा उस तरह नहीं हो सकता है, जैसे घट-पट आदि का होता है, लेकिन इतने मात्र से उसका निषेध भी नहीं किया जा सकता है। जैन आचार्यों ने इसके लिए गुण और गुणी का तर्क दिया है। घट आदि जिन वस्तुओं को हम जानते हैं, उनका भी यथार्थबोध मात्र प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता, क्योंकि हमें जिनका बोध प्रत्यक्ष होता है, वह घट के रूपादि गुणों का प्रत्यक्ष है, लेकिन घट मात्र रूप नहीं है, वह तो अनेक गुणों का समूह है, जिन्हें हम नहीं जानते। आकार तो उनमें से एक गुण है। जब रूप-गुण के प्रत्यक्षीकरण को घट का प्रत्यक्षीकरण मान लेते हैं और हमें कोई संशय नहीं होता है, तो फिर ज्ञानगुण से आत्मा का प्रत्यक्ष क्यों नहीं मान लेते । १०० चार्वाकदार्शनिक कहते हैं कि जिस तरह महुआ आदि मादक सामग्री से मदशक्ति उत्पन्न होती है, उसी पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के विशिष्ट संयोग से शरीर में चैतन्य उत्पन्न होता है । उपाध्याय यशोविजयजी ने चार्वाकों को इन्हीं के दृष्टान्त द्वारा आत्मा का अस्तित्त्व यहाँ समझाया है। वे कहते हैं- " मादक सामग्री ६८. शरीरस्यैव चात्मत्वे नाऽनुभूतस्मृतिर्भवेत् । बालत्वादिदशाभेदात् तस्यैकस्याऽनवस्थितेः ।। १८ ।। - मिथ्यात्वत्यागाधिकार - अध्यात्मसार ३. यशोविजयजी ६६. मिला प्रकाश खिला बसंत - ( गणधरवाद) - आचार्य जयंतसेनसूरि १०० १५५८, विशेषावश्यकभाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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