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________________ ६६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री पुष्प, गुड़, पानी आदि स्वयं अपने-आप मिलकर मद्य नहीं बनती है, उनका मिश्रण करके हिलाकर अमुक प्रक्रिया कोई व्यक्ति करता है, तब मद्य बनती है; उसी प्रकार पंच महाभूत एकत्र होने पर उसमें से जीव उत्पन्न नहीं होता है, परंतु इन पाँचों का मिश्रण करने वाली कोई शक्ति की अपेक्षा रहती है। यह चैतन्यशक्ति ही आत्मा है।"१०१ अजीव के प्रतिपक्षी रूप में जीव की सिद्धि : जीव और अजीव- ये दो शब्द हैं, जो परस्पर एक-दूसरे के प्रतिपक्षी हैं। अतः अजीव का प्रतिपक्षी कोई न कोई होना ही चाहिए, क्योंकि अजीव में व्युत्पत्तिपरक शुद्ध पद (जीव) का निषेध हुआ है और व्युत्पत्तिपरक शुद्ध पद का प्रतिषेध होने पर उसका प्रतिपक्षी होता है, जैसे कि अघट का प्रतिपक्षी घट। अघट में व्युत्पत्ति परक शुद्ध पद घट का निषेध किया गया है, इस कारण से अघट का विरोधी घट अवश्य विद्यमान है, किन्तु अखरविषाण या अडित्य में इनके प्रतिपक्षी नहीं हो सकते, क्योंकि खरविषाण-यह शुद्ध पद नहीं हैं किन्तु समासनिष्पन्न पद है और डित्थ का व्युत्पत्तिपरक कोई अर्थ ही नहीं है, जबकि “अजीव में व्युत्पत्तिपरक शुद्ध पद जीव का निषेध होने से जीव का अस्तित्त्व अवश्य मानना चाहिए।"०२ वस्तु का अस्तित्त्व नहीं हो, तो उसका निषेध नहीं हो सकता है। ___उपाध्याय यशोविजयजी इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं"संयोग का निषेध होने से असत् का निषेध नहीं होता है।"१०३ जैसे कोई कहे कि मुझे गधे के सिर पर सींग नहीं दिखते हैं, तो गधे के सिर पर सींग नहीं-यह कहने पर गधे और सींग के संयोग का निषेध हुआ है, लेकिन गधा और सींग दोनों भिन्न-भिन्न अस्तित्त्व तो रखते ही हैं। गाय और भैंस के सिर पर तो सींग होते ही हैं, अतः यहाँ असत् सींग का निषेध नहीं, अपितु 'गधे के सिर पर सींग' की विद्यमानता का निषेध है। इसी प्रकार की व्याख्या आकाश-कुसुम, वंध्यापुत्र आदि में समझना चाहिए। १०१. मंद्यागेथ्यो मदव्यक्तिरपि नो मेलकं बिना १०२. अस्थि अजीव विवक्खो पड़िसेहाओ धड़ोऽस्सेव-१६३ - विशेषावश्यकभाष्य १०३. अजीव इति शब्दश्च जीव सत्तानियंत्रितः। असतो न निषेधो यत्संयोगादिनिषेधनात् ।।२७ ।। -मिथ्यात्वत्यागाधिकार - अध्यात्मसार - उपाध्याय यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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